अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 6/ मन्त्र 14
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अतिथिः, विद्या
छन्दः - साम्न्यनुष्टुप्
सूक्तम् - अतिथि सत्कार
ये व्री॒हयो॒ यवा॑ निरु॒प्यन्तें॒ऽशव॑ ए॒व ते ॥
स्वर सहित पद पाठये । व्री॒हय॑: । यवा॑: । नि॒:ऽउ॒प्यन्ते॑ । अं॒शव॑: । ए॒व । ते ॥६.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
ये व्रीहयो यवा निरुप्यन्तेंऽशव एव ते ॥
स्वर रहित पद पाठये । व्रीहय: । यवा: । नि:ऽउप्यन्ते । अंशव: । एव । ते ॥६.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6;
पर्यायः » 1;
मन्त्र » 14
विषय - संन्यासी और गृहस्थ के धर्म का उपदेश।
पदार्थ -
(ये) जो (व्रीहयः) चावल और (यवाः) जौ [गृहस्थों करके] (निरुप्यन्ते) फैलाये [परोसे] जाते हैं, (ते) वे (एव) ही [संन्यासी को] (अंशवः) सूक्ष्म विचार [होते हैं] ॥१४॥
भावार्थ - जब गृहस्थ लोग चावल जौ आदि बोकर भोजन करते हैं, संन्यासी लोग स्वयंसिद्ध मुनि अन्नों से निर्वाह करके सूक्ष्म विचार करते हैं ॥१४॥
टिप्पणी -
१४−(ये) (व्रीहयः) अ० ६।१४०।२। धान्यविशेषाः (यवाः) (निरुप्यन्ते) डुवप बीजसन्ताने मुण्डने च। प्रक्षिप्यन्ते (अंशवः) मृगय्वादयश्च। उ० १।३७। अंश विभाजने-क। सूक्ष्मांशाः। सोमलतावयवाः ॥