अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 6/ मन्त्र 12
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अतिथिः, विद्या
छन्दः - विराड्गायत्री
सूक्तम् - अतिथि सत्कार
यत्पु॒रा प॑रिवे॒षात्खा॒दमा॒हर॑न्ति पुरो॒डाशा॑वे॒व तौ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । पु॒रा । प॒रि॒ऽवे॒षात् । खा॒दम् । आ॒ऽहर॑न्ति । पु॒रो॒डाशौ॑ । ए॒व । तौ ॥६.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्पुरा परिवेषात्खादमाहरन्ति पुरोडाशावेव तौ ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । पुरा । परिऽवेषात् । खादम् । आऽहरन्ति । पुरोडाशौ । एव । तौ ॥६.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6;
पर्यायः » 1;
मन्त्र » 12
विषय - संन्यासी और गृहस्थ के धर्म का उपदेश।
पदार्थ -
(यत्) जब वे [गृहस्थ लोग] (पुरा) पहिले (परिवेषात्) परोसकर (खादम्) भोजन को (आहरन्ति) खाते हैं। [तब संन्यासी के लिये] (तौ) वे (पुरोडाशौ) दो पुरोडाश [मुनि अन्न की दो रोटियाँ] (एव) ही हैं ॥१२॥
भावार्थ - संन्यासी लोग बहुमूल्य आहारों को छोड़कर थोड़े मुनि अन्न, नीवार, कन्द आदि का भोजन करते हैं ॥१२॥ पुरोडाश का वर्णन मनु० अ० ६। श्लो० ११ में इस प्रकार है ॥ वासन्तशारदैर्मेध्यैर्मुन्यन्नैः स्वयमाहृतैः। पुरोडाशांश्चरूँश्चैव विधिवन्निर्वपेत्पृथक् ॥१॥ अपने हाथ से लाये हुए वसन्त और शरद् में उत्पन्न हुए पवित्र मुनियों के अन्नों से पुरोडाश और चरु को विधि के अनुसार अलग-अलग फैलावे [परोसे] ॥
टिप्पणी -
१२−(यत्) यदा (पुरा) आदौ (परिवेषात्) परि+विष्लृ व्याप्तौ-घञ्। पञ्चमीविधाने ल्यब्लोपे कर्मण्युपसंख्यानम्। वा० पा० २।३।२८। ल्यब्लोपे कर्मणि पञ्चमी। परिवेषं भोजनार्थं पात्रे अन्नादेर्दानं समाप्य (खादम्) भोजनम् (आहरन्ति) खादन्ति (पुरोडाशौ) अ० ८।८।२२। मुन्यन्नरोटिकाविशेषौ-मनुः ६।११। (तौ) ॥