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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 29
    ऋषिः - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - आर्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    प॒रो दि॒वा प॒रऽए॒ना पृ॑थि॒व्या प॒रो दे॒वेभि॒रसु॑रै॒र्यदस्ति॑। कꣳस्वि॒द् गर्भं॑ प्रथ॒मं द॑ध्र॒ऽआपो॒ यत्र॑ दे॒वाः स॒मप॑श्यन्त॒ पूर्वे॑॥२९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒रः। दि॒वा। प॒रः। ए॒ना। पृ॒थि॒व्या। प॒रः। दे॒वेभिः॑। असु॑रैः। यत्। अस्ति॑। कम्। स्वि॒त्। गर्भ॑म्। प्र॒थ॒मम्। द॒ध्रे॒। आपः॑। यत्र॑। दे॒वाः। स॒मप॑श्य॒न्तेति॑ स॒म्ऽअप॑श्यन्त। पूर्वे॑ ॥२९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परो दिवा परऽएना पृथिव्या परो देवेभिरसुरैर्यदस्ति । कँ स्विद्गर्भम्प्रथमन्दध्रऽआपो यत्र देवाः समपश्यन्त पूर्वे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    परः। दिवा। परः। एना। पृथिव्या। परः। देवेभिः। असुरैः। यत्। अस्ति। कम्। स्वित्। गर्भम्। प्रथमम्। दध्रे। आपः। यत्र। देवाः। समपश्यन्तेति सम्ऽअपश्यन्त। पूर्वे॥२९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 29
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    भावार्थ - सर्वात सूक्ष्म व स्थूल, अतिश्रेष्ठ, सर्वांचा धारणकर्ता, सर्व विद्वानांचा विषय अर्थात् सर्व विद्यांचे निराकरण ज्याच्या ठायी आढळते असा अनादी व चेतन असा एकच ब्रह्म उपासना करण्यायोग्य आहे, अन्य नव्हे. हे माणसांनी जाणावे.

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