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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 71
    ऋषिः - कुत्स ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    अग्ने॑ सहस्राक्ष शतमूर्द्धञ्छ॒तं ते॑ प्रा॒णाः स॒हस्रं॑ व्या॒नाः। त्वꣳ सा॑ह॒स्रस्य॑ रा॒यऽई॑शिषे॒ तस्मै॑ ते विधेम॒ वाजा॑य॒ स्वाहा॑॥७१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। स॒ह॒स्रा॒क्षेति॑ सहस्रऽअक्ष। श॒त॒मू॒र्द्ध॒न्निति॑ शतऽमूर्धन्। श॒तम्। ते॒। प्रा॒णाः। स॒हस्र॑म्। व्या॒ना इति॑ विऽआ॒नाः। त्वम्। सा॒ह॒स्रस्य॑। रा॒यः। ई॒शि॒षे॒। तस्मै॑। ते॒। वि॒धे॒म॒। वाजा॑य। स्वाहा॑ ॥७१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने सहस्राक्ष शतमूर्धञ्छतन्ते प्राणाः सहस्रँव्यानाः । त्वँ साहस्रस्य राय ईशिषे तस्मै ते विधेम वाजाय स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। सहस्राक्षेति सहस्रऽअक्ष। शतमूर्द्धन्निति शतऽमूर्धन्। शतम्। ते। प्राणाः। सहस्रम्। व्याना इति विऽआनाः। त्वम्। साहस्रस्य। रायः। ईशिषे। तस्मै। ते। विधेम। वाजाय। स्वाहा॥७१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 71
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    भावार्थ - जो योगी पुरुष तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान (धारणा, ध्यान, समाधिरूप, संयम) इत्यादी योगाच्या साधनांनी बल प्राप्त करून घेतो व अनेक प्राण्यांच्या शरीरात प्रवेश करून अनेक मस्तके, नेत्र इत्यादी अवयवांनी पाहण्याची क्रिया करू शकतो. अनेक पदार्थांचा किंवा धनाचा स्वामीही होऊ शकतो त्याचे आपण अवश्य अनुसरण केले पाहिजे.

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