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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - मरुतो देवताः छन्दः - भुरिगतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः
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    अश्म॒न्नूर्जं॒ पर्व॑ते शिश्रिया॒णाम॒द्भ्यऽओष॑धीभ्यो॒ वन॒स्पति॑भ्यो॒ऽअधि॒ सम्भृ॑तं॒ पयः॑। तां न॒ऽइष॒मूर्जं॑ धत्त मरुतः सꣳररा॒णाऽअश्म॑ꣳस्ते॒ क्षुन् मयि॑ त॒ऽऊर्ग्यं॑ द्वि॒ष्मस्तं ते॒ शुगृ॑च्छतु॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्म॑न्। ऊर्ज॑म्। पर्व॑ते। शि॒श्रि॒या॒णाम्। अ॒द्भ्य इत्य॒त्ऽभ्यः। ओष॑धीभ्यः। वन॒स्पति॑भ्य इति॒ वन॒स्पति॑ऽभ्यः अधि॑। सम्भृ॑त॒मिति॒ सम्ऽभृ॑तम्। पयः॑। ताम्। नः॒। इष॑म्। ऊर्ज॑म्। ध॒त्त॒। म॒रु॒तः॒। स॒ꣳर॒रा॒णा इति॑ सम्ऽरराणाः। अश्म॑न्। ते॒। क्षुत्। मयि॑। ते॒। ऊर्क्। यम्। द्वि॒ष्मः। तम्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒ ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्मन्नूर्जम्पर्वते शिश्रियाणामद्भ्यऽओषधीभ्यो वनस्पतिभ्योऽअधि सम्भृतम्पयः । तान्नऽइषमूर्जन्धत्त मरुतः सँरराणाः अश्मँस्ते क्षुन्मयि तऽऊर्ग्ययन्द्विष्मस्तन्ते शुगृच्छतु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अश्मन्। ऊर्जम्। पर्वते। शिश्रियाणाम्। अद्भय इत्यत्ऽभ्यः। ओषधीभ्यः। वनस्पतिभ्य इति वनस्पतिऽभ्यः अधि। सम्भृतमिति सम्ऽभृतम्। पयः। ताम्। नः। इषम्। ऊर्जम्। धत्त। मरुतः। सꣳरराणा इति सम्ऽरराणाः। अश्मन्। ते। क्षुत्। मयि। ते। ऊर्क्। यम्। द्विष्मः। तम्। ते। शुक्। ऋच्छतु॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 1
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    भावार्थ - सूर्य जसा जलाशय वृक्ष यांचा रस शोषून त्यापासून मेघांची निर्मिती करतो व पुन्हा पर्जन्यरूपाने बरसतो. त्यामुळे अन्न इत्यादी पदार्थ उत्पन्न होतात. त्या अन्नाने क्षुधानिवृत्ती होते. क्षुधानिवृत्ती झाल्यामुळे बल वाढते व बलामुळे दुष्टांचा नाश होतो, त्यामुळे सज्जनांचे दुःख नाहीसे होते. त्यामुळे आपल्यासारखेच दुसऱ्यांचेही सुख-दुःख असते हे मानले पाहिजे. सर्वांनी एकमेकांचे मित्र बनून परस्परांच्या दुःखाचा नाश केला पाहिजे व सतत सुख वाढवीत राहिले पाहिजे.

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