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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 99
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - यज्ञपुरुषो देवता छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    धाम॑न्ते॒ विश्वं॒ भुव॑न॒मधि॑ श्रि॒तम॒न्तः स॑मु॒द्रे हृ॒द्यन्तरायु॑षि। अ॒पामनी॑के समि॒थे यऽआभृ॑त॒स्तम॑श्याम॒ मधु॑मन्तं तऽऊ॒र्मिम्॥९९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धाम॑न्। ते॒। विश्व॑म्। भुव॑नम्। अधि॑। श्रि॒तम्। अ॒न्तरित्य॒न्तः। स॒मु॒द्रे। हृ॒दि। अ॒न्तरित्य॒न्तः। आयु॑षि। अ॒पाम्। अनी॑के। स॒मि॒थ इति॑ सम्ऽइ॒थे। यः। आभृ॑त॒ इत्याऽभृ॑तः। तम्। अ॒श्या॒म॒। मधु॑मन्त॒मिति॒ मधु॑ऽमन्तम्। ते॒। ऊ॒र्मिम् ॥९९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धामन्ते विश्वम्भुवनमधिश्रितमन्तः समुद्रे हृद्यन्तरायुषि । अपामनीके समिथे यऽआभृतस्तमश्याम मधुमन्तन्त ऊर्मिम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    धामन्। ते। विश्वम्। भुवनम्। अधि। श्रितम्। अन्तरित्यन्तः। समुद्रे। हृदि। अन्तरित्यन्तः। आयुषि। अपाम्। अनीके। समिथ इति सम्ऽइथे। यः। आभृत इत्याऽभृतः। तम्। अश्याम। मधुमन्तमिति मधुऽमन्तम्। ते। ऊर्मिम्॥९९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 99
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    भावार्थ - माणसांनी या ईश्वरी सृष्टीत अत्यंत प्रयत्नपूर्वक सर्वांची उन्नती करावी. सर्व साधन सामग्री बाळगून यथायोग्य आहार, विहार करावा. परिश्रमाने शरीराचे आरोग्य वाढवावे व इतरांवरही उपकार करावा.

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