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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 45
    ऋषिः - अप्रतिरथ ऋषिः देवता - इषुर्देवता छन्दः - आर्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अव॑सृष्टा॒ परा॑ पत॒ शर॑व्ये॒ ब्रह्म॑सꣳशिते। गच्छा॒मित्रा॒न् प्र प॑द्यस्व॒ मामीषां॒ कञ्च॒नोच्छि॑षः॥४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑सृ॒ष्टेत्यव॑ऽसृष्टा। परा॑। प॒त॒। शर॑व्ये। ब्रह्म॑सꣳशित॒ इति॒ ब्रह्म॑ऽसꣳशिते। गच्छ॑। अ॒मित्रा॑न्। प्र। प॒द्य॒स्व॒। मा। अ॒मीषा॑म्। कम्। च॒न। उत्। शि॒षः॒ ॥४५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवसृष्टा परा पत शरव्ये ब्रह्मसँशिते । गच्छामित्रान्प्र पद्यस्व मामीषाङ्कं चनोच्छिषः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अवसृष्टेत्यवऽसृष्टा। परा। पत। शरव्ये। ब्रह्मसꣳशित इति ब्रह्मऽसꣳशिते। गच्छ। अमित्रान्। प्र। पद्यस्व। मा। अमीषाम्। कम्। चन। उत्। शिषः॥४५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 45
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    भावार्थ - युद्धविद्येचे शिक्षण जसे पुरुषांना दिले जाते तसे राजाने स्त्रियांनाही द्यावे. जसे वीर पुरुष युद्ध करतात, तसेच स्त्रियांनीही करावे. युद्धात मृत झालेल्यांना सोडून (शत्रूपक्षाच्या) उरलेल्या भयभीत लोकांना सतत कारागृहात ठेवावे.

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