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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 12
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराड् जगती स्वरः - निषादः
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    त्वम॑ग्ने प्रथ॒मोऽअङ्गि॑रा॒ऽऋषि॑र्दे॒वो दे॒वाना॑मभवः शि॒वः सखा॑।तव॑ व्र॒ते क॒वयो॑ विद्म॒नाप॒सोऽजा॑यन्त म॒रुतो॒ भ्राज॑दृष्टयः॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। अ॒ग्ने॒। प्र॒थ॒मः। अङ्गि॑राः। ऋषिः॑। दे॒वः। दे॒वाना॑म्। अ॒भ॒वः॒। शि॒वः। सखा॑ ॥ तव॑। व्र॒ते। क॒वयः॑। वि॒द्म॒नाप॑स॒ इति॑ विद्म॒नाऽअ॑पसः। अजा॑यन्त। म॒रुतः॑। भ्राज॑दृष्टय॒ इति॒ भ्राज॑त्ऽऋष्टयः ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने प्रथमोऽअङ्गिराऽऋषिर्देवो देवानामभवः शिवः सखा । तव व्रते कवयो विद्मनापसो जायन्त मरुतो भ्राजदृष्टयः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अग्ने। प्रथमः। अङ्गिराः। ऋषिः। देवः। देवानाम्। अभवः। शिवः। सखा॥ तव। व्रते। कवयः। विद्मनापस इति विद्मनाऽअपसः। अजायन्त। मरुतः। भ्राजदृष्टय इति भ्राजत्ऽऋष्टयः॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 12
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    पदार्थ -
    सरस्वतीरूप माता से शिक्षित होकर एक युवक बड़े संयत जीवनवाला बनता है। यह प्रभु को निम्न शब्दों में आराधित करता है १. हे (अग्ने) = हमारी सब प्रकार की उन्नतियों के साधक प्रभो! (त्वम्) = आप (प्रथमः) = सबसे प्रथम होनेवाले हो, गुरुओं के भी गुरु हो [हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे]। आप अत्यन्त विस्तारवाले हो [ प्रथ विस्तारे], सर्वव्यापक हो, सबमें आप हो, सब आपमें ही स्थित हैं । २. (अङ्गिराः) = [अङ्ग, रस] हमारे अङ्ग-प्रत्यङ्ग में आप ही रस का सञ्चार करनेवाले हो । सभी को शक्ति देनेवाले आप ही हो। आपकी दीप्ति से ही वस्तुतः सारा संसार दीप्त है। ३. (ऋषिः) = आप सर्वद्रष्टा हैं, सर्वज्ञ हैं । ४. (देवः) = सब दिव्य गुणों के पुञ्ज हैं, सब देवताओं को भी देवत्व देनेवाले आप ही हैं। ४. (देवानाम्) = दिव्य गुणों को अपनाकर देव बननेवालों के (शिवः सखा) = कल्याणकर मित्र (अभवः) = होते हो। प्रभु देव हैं तो देव बननेवाले उन्हें क्यों न प्रिय हों? ४. देव बनने के लिए जो व्यक्ति (तव व्रते) = आपके व्रत में चलते हैं, अर्थात् अपना लक्ष्य प्रभु-प्राप्ति बनाते हैं, वे व्यक्ति [क] (कवयः) = क्रान्तदर्शी बनते हैं, तात्त्विक ज्ञान को प्राप्त करके वस्तुओं की ऊपरली चमक से मुग्ध हो जानेवाले नहीं होते । [ख] (विद्मनापस:) = ज्ञानपूर्वक होने के कारण ही इनके कर्म पवित्र बने रहते हैं। [ग] (मरुतः) = ये मितरावी होते हैं, बोलते कम हैं, करते अधिक हैं, वाग्वीर न होकर कर्मवीर होते हैं तथा [ मरुतः प्राणा: ] - प्राणों की साधना करनेवाले होते हैं। [घ] इस प्राणसाधना से ही वस्तुतः ये (भ्राजदृष्टयः) = देदीप्यमान ज्ञानरूप दर्शनवाले (अजायन्त) = होते हैं। इनकी ज्ञानाग्नि खूब चमक उठती है।

    भावार्थ - भावार्थ- वीर्य की ऊर्ध्वगति करनेवाला 'हिरण्यस्तूप' प्रभु को 'अग्नि, अङ्गिरा, ऋषि, देव व देवसखारूप' में देखता है और प्रभु-प्राप्ति को जीवन का लक्ष्य बनाकर 'कवि-ज्ञानपूर्वक कर्म करनेवाला, मरुत व भ्राजदृष्टि' बन जाता है।

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