यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 24
ऋषिः - आङ्गिरसो हिरण्यस्तूप ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
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अ॒ष्टौ व्य॑ख्यत् क॒कुभः॑ पृथि॒व्यास्त्री धन्व॒ योज॑ना स॒प्त सिन्धू॑न्।हि॒र॒ण्या॒क्षः स॑वि॒ता दे॒वऽआगा॒द् दध॒द् रत्ना॑ दा॒शुषे॒ वार्य्या॑णि॥२४॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ष्टौ। वि। अ॒ख्य॒त्। क॒कुभः॑। पृ॒थि॒व्याः। त्री। धन्व॑। योज॑ना। स॒प्त। सिन्धू॑न् ॥ हि॒र॒ण्या॒क्ष इति॑ हिरण्यऽअ॒क्षः। स॒वि॒ता। दे॒वः। आ। अ॒गा॒त्। दध॑त्। रत्ना॑। दा॒शुषे॑। वार्य्या॑णि ॥२४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अष्टौ व्यख्यत्ककुभः पृथिव्यास्त्री धन्व योजना सप्त सिन्धून् । हिरण्याक्षः सविता देवऽआगाद्दधद्रत्ना दाशुषे वार्याणि ॥
स्वर रहित पद पाठ
अष्टौ। वि। अख्यत्। ककुभः। पृथिव्याः। त्री। धन्व। योजना। सप्त। सिन्धून्॥ हिरण्याक्ष इति हिरण्यऽअक्षः। सविता। देवः। आ। अगात्। दधत्। रत्ना। दाशुषे। वार्य्याणि॥२४॥
विषय - वरणीय रत्नों का आधान
पदार्थ -
१. (सविता देवः) = सबको कर्म में प्रेरित करनेवाला - देदीप्यमान व प्रकाश देनेवाला सूर्य (पृथिव्या:) = पृथिवी के अष्टौ आठों (ककुभः) = दिशाओं को (व्यख्यत्) = प्रकाशित करता है। चार पूर्वादि दिशाएँ हैं, चार उपदिशाएँ हैं, इस प्रकार आठ दिशाओं की कल्पना हुई है। यह पृथिवी वेद के अनुसार 'देवयजनी'-देवताओं के यज्ञ करने का स्थान है, देवयज्ञशाला है। इसी के अनुकरण में यज्ञशालाओं को प्रायः अष्टकोण बनाने की परिपाटी हो गई है। २. यह सविता देव (त्री योजना धन्व) = तीनों [प्राणिनः स्वस्वभोगेन योजयितॄन्] प्राणियों को विविध भोग प्राप्त करानेवाले अन्तरिक्षों को व्यख्यत् प्रकाशित करता है। तीन अन्तरिक्षलोकों का उल्लेख निम्न मन्त्रों में स्पष्ट है - [क] (तिस्रो द्यावो निहिता अन्तरस्मिन् तिस्त्रो भूमी: उपराः षड् विधानाः) [ऋ० ७।८७।५] [ख] (तिस्रो भूमीर्धारयन् त्रीरुत द्यून् त्रीणि व्रता विदथे अन्तरेषाम्)[ऋ० २।२७।८] । [ग] (तिस्रो मातृस्त्रीन् पितॄन् बिभ्रदेक ऊर्ध्वस्तस्थौ नेमव ग्लापयन्ति) [ऋ० १।१६४।१०] [घ] (एष लोकः त्रिवृत् योऽयमन्तरा) [तां० ११।१०] [ङ] (अन्तरिक्षं त्रिष्टुप्) [जै०उ० १५५/३] [च] (अन्तरिक्षलोको यजुर्वेदः) [ घ० १।५ ] । यजुर्वेद भी तीन भागों में बँटा हुआ है, उसी प्रकार अन्तरिक्षलोक । यजुर्वेद का पहला भाग ३८ अध्याय तक है, इसमें विविध यज्ञों का प्रतिपादन है। दूसरा भाग ३९वाँ अध्याय है, इसमें यज्ञ करनेवाले को गर्व न होने देने के लिए अन्त्येष्टि का वर्णन है। तीसरा भाग ४०वाँ अध्याय है, इसमें कहते हैं कि हे जीव ! सब-कुछ करनेवाले वे प्रभु ही हैं, उन्हीं के आधार में स्थित होकर तेरे माध्यम से भी कर्म चल रहे हैं। इसी प्रकार अन्तरक्षि भी तीन भागों में बँटा है और उन सबको वह सविता देव प्रकाशित कर रहा है। (छ) (सप्त सिन्धून्) = सातों समुद्रों को भी वह सविता देव प्रकाशित करते हैं। यह (हिरण्याक्षः) = ज्योतिर्मय आँखोंवाला सविता देव (आगात्) = आया है और (दाशुषे) = हवि देनेवाले के लिए (वार्याणि रत्ना) = वरणीय उत्तम रत्नों को (दधत्) = धारण करता है। स्पष्ट है कि सूर्योदय के समय घर पर अग्निहोत्र करना चाहिए। ऐसा करने पर यह सूर्य इस दाश्वान् को स्वास्थ्यादि उत्तम रत्नों को प्राप्त कराता है।
भावार्थ - भावार्थ- 'सूर्योदय के समय अग्निहोत्र करना और इस प्रकार स्वास्थ्यादि उत्तम रत्नों को प्राप्त करना' हमारा महान् कर्त्तव्य है।
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