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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 30
    ऋषिः - कुत्स ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    द्युभि॑र॒क्तुभिः॒ परि॑ पातम॒स्मानरि॑ष्टेभिरश्विना॒ सौभ॑गेभिः।तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑तिः॒ सिन्धुः॑ पृथि॒वीऽउ॒त द्यौः॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्युभि॒रिति॒ द्युऽभिः॑। अ॒क्तुभि॒रित्य॒क्तुऽभिः॑। परि॑। पा॒त॒म्। अ॒स्मान्। अरि॑ष्टेभिः। अ॒श्वि॒ना॒। सौभ॑गेभिः ॥ तत्। नः॒। मि॒त्रः। वरु॑णः। मा॒म॒ह॒न्ता॒म्। अदि॑तिः। सिन्धुः॑। पृ॒थि॒वी। उ॒त। द्यौः ॥३० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्युभिरक्तुभिः परि पातमस्मानरिष्टेभिरश्विना सौभगेभिः । तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवीऽउत द्यौः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    द्युभिरिति द्युऽभिः। अक्तुभिरित्यक्तुऽभिः। परि। पातम्। अस्मान्। अरिष्टेभिः। अश्विना। सौभगेभिः॥ तत्। नः। मित्रः। वरुणः। मामहन्ताम्। अदितिः। सिन्धुः। पृथिवी। उत। द्यौः॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 30
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    पदार्थ -
    १. हे (अश्विना) = प्राणापानो! (द्युभिः) = दिनों में (अक्तुभिः) = रात्रियों में, अर्थात् दिन-रात (अस्मान्) = हमारी (परिपातम्) = रक्षा कीजिए। दिन में हम आलस्यशून्य होकर विवेकपूर्वक शुभ भावनाओं से युक्त होकर कार्यों में लगे रहें, रात्रि में गाढ़ी नींद में जाकर अशुभ स्वप्नों की आशंका से बचे रहते हैं । २. हे प्राणापानो! आप (अरिष्टेभिः) = न हिंसित होनेवाले (सौभगेभिः) = सौभगों के द्वारा हमारी रक्षा कीजिए। 'भग' शब्द में 'ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान व अनासक्ति [वैराग्य]' की भावना है। इन सब सुन्दर भगों को प्राप्त करानेवाले ये प्राणापान हैं। इनसे हम सब प्रकार से सुरक्षित होकर हिंसित होने से बचे रहते हैं । ३. कुत्स कहता है कि इस प्रकार प्राणसाधना से अपनी रक्षा व सौभग प्राप्ति के (तत्) = उस (नः) = हमारे संकल्प को (मित्रः वरुण अदिति: सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः) = मित्र, वरुण, अदिति, सिन्धु, पृथिवी और द्यौ- ये सब देवता (मामहन्ताम्) = आदृत करें। जैसे बैंक चेक को आदृत [Honours] करता है, अर्थात् उसे कैश कर देता है, उसी प्रकार ये देव हमारे इस सङ्कल्प को आदृत करें, पूर्ण करें। जिस समय ये देवता मेरे इस संकल्प को आदृत करेंगे तब मैं इन देवों को अपने में प्रतिष्ठित हुआ हुआ पाऊँगा । उस दिन [क] (मित्रः) = मैं सभी के साथ स्नेह करनेवाला बनूँगा। [ख] (वरुण:) = मैं द्वेष का निवारण करनेवाला बनूँगा। [ग] (अदिति:) = [दो अवखण्डने] सब प्रकार के खण्डनों से रहित पूर्ण स्वस्थ होऊँगा । [घ] (सिन्धुः) = [ स्यन्दन्ते, अर्थात् बहनेवाले जल - शरीर में रेतस्] मेरे शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में शक्ति का सञ्चार होगा। [ङ] (पृथिवी) = [ प्रथ विस्तारे] मेरा हृदय विस्तार को लिये हुए होगा और [च] (द्यौ:) = [दिव= प्रकाश] मस्तिष्क ज्योतिर्मय होगा ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्राणसाधना से हममें मित्रादि देवों का निवास होता है। हम 'स्नेहमय, निद्वेष भावार्थस्वस्थ, शक्तिसम्पन्न, विशाल हृदय व दीप्तमस्तिष्क' बनते है । एवं ये छह देव हमारा आदर करते हैं।

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