यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 56
ऋषिः - कण्व ऋषिः
देवता - ब्रह्मणस्पतिर्देवता
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
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उत्ति॑ष्ठ ब्रह्मणस्पते देव॒यन्त॑स्त्वेमहे।उप॒ प्र य॑न्तु म॒रुतः॑ सु॒दान॑व॒ऽइन्द्र॑ प्रा॒शूर्भ॑वा॒ सचा॑॥५६॥
स्वर सहित पद पाठउत्। ति॒ष्ठ॒। ब्र॒ह्म॒णः॒। प॒ते॒। दे॒व॒यन्त॒ इति॑ देव॒ऽयन्तः॑। त्वा॒। ई॒म॒हे॒ ॥ उप॑। प्र। य॒न्तु॒। म॒रुतः॑। सु॒दा॑नव॒ इति॑ सु॒ऽदान॑वः। इन्द्र॑। प्रा॒शूः। भ॒व॒। सचा॑ ॥५६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेमहे । उपप्रयन्तु मरुतः सुदानवऽइन्द्र प्राशूर्भवा सचा ॥
स्वर रहित पद पाठ
उत्। तिष्ठ। ब्रह्मणः। पते। देवयन्त इति देवऽयन्तः। त्वा। ईमहे॥ उप। प्र। यन्तु। मरुतः। सुदानव इति सुऽदानवः। इन्द्र। प्राशूः। भव। सचा॥५६॥
विषय - ब्रह्मणस्पति का उत्थान
पदार्थ -
१. हमारे जीवनों में सामान्यतः सांसारिक भावनाएँ प्रबल रूप से उठती रहती हैं। कभी काम की वासना उठ खड़ी हुई, कभी क्रोध प्रबल हो गया या लोभ ने हमें आ घेरा। इन वासनाओं के उठ खड़े होने पर दिव्य - भावनाओं का तो हमारे हृदयों से कूच हो ही जाता है। इनके जाने पर 'देव' वहाँ से चले जाते हैं, अतः 'कण्व' प्रार्थना करता है कि है (ब्रह्मणस्पते) = ज्ञान के पति प्रभो! (उत्तिष्ठ) = हमारे हृदयों में आपका ही भावन उठे। हम आपका ही चिन्तन करें। हमें आपकी कभी विस्मृति न हो। २. जिस प्रकार राजा के आने पर अन्य अधिकृत पुरुष उसके पीछे-पीछे स्वयं आ जाते हैं उसी प्रकार उस महान् देव के आने पर अन्य देव उसके साथ आएँगे ही, अतः (देवयन्तः) = देवों को अपनाने की कामना करते हुए हम (त्वा) = आपको (ईमहे) = चाहते हैं, प्राप्त करने की कामना करते हैं। मेरे हृदय में प्रभुभावना उठ खड़ी होगी तो 'आसुर भावनाएँ लुप्त हो जाएँगी। इतना ही नहीं, प्रत्युत सब दिव्य - भावनाएँ मेरी हृदयस्थली में अंकुरित हो उठेंगी। 'कण्व' की इस प्रार्थना पर प्रभु कहते हैं कि ३. (उपप्रयन्तु) = मेरे समीप आएँ। कौन? [क] (मरुतः) = प्राणों की साधना करनेवाले [मरुतः प्राणाः] परिमित बोलनेवाले [मितराविणः] तथा [ख] (सुदानवः) = उत्तम दान देनेवाले। वस्तुतः प्रभुभावना को जागरित करने के ये तीन साधन हैं- 'प्राणसाधना, बोलना और दानशील बनना।' पुनः प्रभु कहते हैं कि [ग] (इन्द्र) = हे इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव! तू [घ] (प्राशूः) = [ प्र अश व्याप्ति] प्रकर्षेण कर्मों में व्याप्त होनेवाला हो। 'कुर्वन्नेवेह कर्माणि' इस आदेश को भूल नहीं। ' एवं त्वयि न अन्यथा इतः अस्ति'- ' यही मार्ग है, दूसरा नहीं' इस बात को भूलना नहीं और [ङ] फिर (सचाभवा) = सबके साथ मिलकर = कम चलनेवाला हो। तूने मोक्ष भी अकेले पाने की कामना नहीं करनी। सभी के कल्याण में अपना कल्याण समझना । इस जीवन यात्रा में वैर-विरोध से नहीं चलना । मुझे तो तू तभी प्राप्त करेगा जब सबके साथ तेरा प्रेमभाव होगा।
भावार्थ - भावार्थ- मेधावी पुरुष प्रभुभावना को हृदय में सदा जागरित करता है, जिससे कि हृदय देवों का निवासस्थान बने। प्रभु प्राप्ति के उपाय इस प्रकार हैं १. प्राणसाधना करना, कम बोलना [मरुतः ] २. प्रकृति में न फँसना, खूब देनेवाला बनना [सुदानवः] ३. जितेन्द्रिय बनने का प्रयत्न करना [इन्द्र] ४. सदा उत्तम कर्मों में लगे रहना [प्राशुः ] ५. मिलकर चलना [सचा] 'सं गच्छध्वम्', इस उपदेश को क्रियान्वित करना ।
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