यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 29
ऋषिः - कुत्स ऋषिः
देवता - अश्विनौ देवते
छन्दः - विराट् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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अप्न॑स्वतीमश्विना॒ वाच॑म॒स्मे कृ॒तं नो॑ दस्रा वृषणा मनी॒षाम्।अ॒द्यूत्येऽव॑से॒ नि ह्व॑ये वां वृ॒धे च॑ नो भवतं॒ वाज॑सातौ॥२९॥
स्वर सहित पद पाठअप्न॑स्वतीम्। अ॒श्वि॒ना॒। वाच॑म्। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। कृ॒तम्। नः॒। द॒स्रा॒। वृ॒ष॒णा॒। म॒नी॒षाम् ॥अ॒द्यू॒त्ये। अव॑से। नि। ह्व॒ये॒। वा॒म्। वृ॒धे। च॒। नः॒। भ॒व॒त॒म्। वाज॑साता॒विति॒ वाज॑ऽसातौ ॥२९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अप्नस्वतीमश्विना वाचमस्मे कृतन्नो दस्रा वृषणा मनीषाम् । अद्यूत्ये वसे नि ह्वये वाँवृधे च नो भवतँवाजसातौ ॥
स्वर रहित पद पाठ
अप्नस्वतीम्। अश्विना। वाचम्। अस्मेऽइत्यस्मे। कृतम्। नः। दस्रा। वृषणा। मनीषाम्॥अद्यूत्ये। अवसे। नि। ह्वये। वाम्। वृधे। च। नः। भवतम्। वाजसाताविति वाजऽसातौ॥२९॥
विषय - कर्मवीर
पदार्थ -
प्राणसाधना के मुख्य लाभ का गतमन्त्र में वर्णन हुआ था। जीवन में होनेवाले अगले परिणामों को प्रस्तुत मन्त्र में दिखलाते हैं १. ये प्राणापान (अश्विना) = [अश् व्याप्तौ] कर्मों में व्याप्त होनेवाले हैं, परिणामतः प्राणसाधक कर्मशील होता है। पिछले मन्त्र में कर्मों के प्रशस्त होने और अविच्छिन्न रूप से चलने का उल्लेख था । यहाँ कहते हैं कि हे प्राणापानो! अस्मे हमारे लिए (वाचम्) = वाणी को (अप्नस्वतीम्) = व्यापक कर्मोंवाला (कृतम्) = कर दीजिए । प्राणसाधक वाग्वीर न होकर कर्मवीर होता है। इसके कर्म भी व्यापक, स्वार्थ की भावना से भरे हुए नहीं होते। २. ये प्राणापान (दस्त्रा) = [दसु उपक्षये] सब रोगकृमियों व मलों का संहार करनेवाले हैं और (वृषणा) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले हैं। इनसे प्रस्कण्व प्रार्थना करता है कि बुराइयों का संहार कर हमें शक्तिशाली बनानेवाले हे प्राणापानो! (नः) = हमारे लिए (मनीषाम्) = [मनसः ईष्टे] मन का शासन करनेवाली बुद्धि को (कृतम्) = कीजिए । सामान्य शब्दों में कहें तो यह कहेंगे कि ये प्राणापान हमें वह बुद्धि प्राप्त कराते हैं जो मन का शासन करनेवाली होती है, अर्थात् हमारी सब इच्छाएँ विवेकपूर्वक होने से औचित्यवाली होती हैं। इसी से हम धनादि के अर्जन में कभी भी अनुचित साधनों का प्रयोग नहीं करते । २. हे प्राणापानो! (वाम्) = आपको मैं (अद्यूत्ये) = द्यूत से उत्पन्न न होनेवाले अवसे धन के लिए (निह्वये) = पुकारता हूँ। प्राणसाधक कभी सट्टे आदि के द्वारा धन कमाने की कामना नहीं करता, वह श्रमार्जित धन को ही धन समझता है । ४. (च) = और (वाजसातौ) = शक्ति की प्राप्ति में अथवा संग्रामों में (नः) = हमारी (वृधे) = वृद्धि के लिए (भवतम्) = होओ। इन प्राणापान से शक्ति तो बढ़ती ही है, वासनाओं के साथ संग्राम में हम विजयी भी होते हैं।
भावार्थ - भावार्थ- प्राणसाधक १. वाग्वीर न होकर कर्मवीर होता है, २. इसका मन बुद्धि के अनुशासन में चलता है, ३. यह श्रम से ही धनार्जन करता है, ४. वासना-संग्राम में सदा विजयी होता है।
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