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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 39
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - भगो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    सम॑ध्व॒रायो॒षसो॑ नमन्त दधि॒क्रावे॑व॒ शुच॑ये प॒दाय॑।अ॒र्वा॒ची॒नं व॑सु॒विदं॒ भगं॑ नो॒ रथ॑मि॒वाश्वा॑ वा॒जिन॒ऽआ व॑हन्तु॥३९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्। अ॒ध्व॒राय॑। उ॒षसः॑। न॒म॒न्त॒। द॒धि॒क्रावे॒वेति॑ दधि॒ऽक्रावा॑ऽइव। शुच॑ये। प॒दाय॑ ॥ अ॒र्वा॒ची॒नम्। व॒सु॒विद॒मिति॑ वसु॒ऽविद॑म्। भग॑म्। नः॒। रथ॑मि॒वेति॒ रथ॑म्ऽइव। अश्वाः॑। वाजिनः॑। आ। व॒ह॒न्तु॒ ॥३९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समध्वरायोषसो नमन्त दधिक्रावेव शुचये पदाय । अर्वाचीनँवसुविदम्भगन्नो रथमिवाश्वा वाजिनऽआ वहन्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। अध्वराय। उषसः। नमन्त। दधिक्रावेवेति दधिऽक्रावाऽइव। शुचये। पदाय॥ अर्वाचीनम्। वसुविदमिति वसुऽविदम्। भगम्। नः। रथमिवेति रथम्ऽइव। अश्वाः। वाजिनः। आ। वहन्तु॥३९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 39
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    पदार्थ -
    १. (उषसः) = उषा: काल (अध्वराय) = अध्वर के लिए (संनमन्त) = सन्नत हों। हम प्रात:काल ही विनीत बनकर अध्वर मार्ग पर चलने का निश्चय करें। 'न ध्वरति कुटिलो भवति, अध्वानं सत्पथं राति इति वा' = विनीत बनकर कुटिलतारहित सन्मार्ग पर चलें । विनीतता का परिणाम कुटिलता-त्याग है। जब नम्रता नष्ट होकर मद आ जाता है तभी जीवन कुटिलता व हिंसावाला हो जाता है। दैवी सम्पत्ति की चरमसीमा विनीतता ही है 'नातिमानिता'। २. (दधिक्रावा इव) = दधिक्रावा के समान (शुचये पदाय) = पवित्र मार्ग के लिए अथवा उस पूर्ण शुद्ध प्रभु को प्राप्त करने के लिए यह उषा: काल हो । [क] 'दधत् क्रामतीति दधिक्रावा' - शक्ति को धारण करके चलता है, हम शक्तिशाली बनकर पवित्र मार्ग पर चलें। संसार निर्बलों के लिए नहीं है। निर्बलता में मनुष्य पाप कर बैठता है। 'वि शक्रः पापकृत्यया- अ० ३।३१।२' शक्तिशाली पाप से दूर रहता है, इसीलिए उपनिषद् कहती है कि ('नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः')। [ख] 'दधत् क्रन्दति इति वा दधिक्रावा'-शक्तिशाली बनकर प्रभु को पुकारता हुआ मैं पवित्र मार्ग पर चलूँ । (दधत्) = धारणात्मक कर्मों को करता हुआ की प्रार्थना करूँ। निर्बल बन प्रभु को पुकारने से कुछ लाभ नहीं। धारणात्मक कर्मों को करता हुआ ही प्रभु-प्रार्थना का अधिकारी है । ३. (इव) = जैसे (वाजिनः अश्वाः) = शाक्तिशाली घोड़े (रथम्) = रथ को उद्दिष्ट स्थान पर पहुँचाते हैं उसी प्रकार (वाजिनः) = शाक्तिशाली व ज्ञानसम्पन्न (अश्वाः) = इन्द्रियरूप घोड़े (नः) = हमें (अर्वाचीने) = [अवरे देशे अञ्चति न तु परे] अन्दर ही विद्यमान (वसुविदम्) = निवास के लिए आवश्यक सब वस्तुओं को प्राप्त करानेवाले (भगम्) = ऐश्वर्यपुञ्ज, सेवनीय प्रभु को (आवहन्तु) = प्राप्त कराएँ। यहाँ इन्द्रियों का विशेषण 'वाजिनः' है, वे शक्तिशाली हों तथा ज्ञानप्राप्ति का उचित साधन हों। उस प्रभु को प्राप्त कराने के लिए इन इन्द्रियरूप घोड़ों की अन्तर्मुखयात्रा चाहिए, वे प्रभु ' अर्वाचीन' हैं, अन्दर ही मौजूद है, वे सब वसुओं के स्वामी हैं, अतः प्रभु-प्राप्ति में 'योगक्षेम' ठीक प्रकार से चलता है।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु-प्राप्ति का मार्ग यह है कि [ क] हम विनीतता को अपनाकर अहिंसा व अकुटिलता के मार्ग पर चलें, [ख] अपने को शक्तिशाली बनाते हुए पवित्र मार्ग का आक्रमण करें तथा धारणात्मक कर्मों में लगे हुए प्रभु की प्रार्थना करें, [ग] प्रभु को ऐश्वर्य का पुञ्ज, सब वस्तुओं को प्राप्त करानेवाला जानते हुए अपनी इन्द्रियों को निरुद्ध कर उसी का ध्यान करें।

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