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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 32
    ऋषिः - कुत्स ऋषिः देवता - रात्रिर्देवता छन्दः - पथ्या बृहती स्वरः - मध्यमः
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    आ रा॑त्रि॒ पार्थि॑व॒ꣳ रजः॑ पि॒तुर॑प्रायि॒ धाम॑भिः।दि॒वः सदा॑सि बृह॒ती वि ति॑ष्ठस॒ऽआ त्वे॒षं व॑र्त्तते॒ तमः॑॥३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। रा॒त्रि॒। पार्थि॑वम्। रजः॑। पि॒तुः। अ॒प्रा॒यि॒। धाम॑भि॒रिति॒ धाम॑ऽभिः ॥ दि॒वः। सदा॑सि। बृ॒ह॒ती। वि। ति॒ष्ठ॒से॒। आ। त्वे॒षम्। व॒र्त्त॒ते॒। तमः॑ ॥३२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ रात्रि पर्थिवँ रजः पितुरप्रायि धामभिः । दिवः सदाँसि बृहती वि तिष्ठस आ त्वेषँवर्तते तमः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। रात्रि। पार्थिवम्। रजः। पितुः। अप्रायि। धामभिरिति धामऽभिः॥ दिवः। सदासि। बृहती। वि। तिष्ठसे। आ। त्वेषम्। वर्त्तते। तमः॥३२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 32
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    पदार्थ -
    सूर्य के प्रकाश के बाद रात्रि आती है, रात्रि की समाप्ति पर उषाकाल आता है। ठीक इसी प्रकार सूर्यदेव के ३१वें मन्त्र के पश्चात् यहाँ रात्रि देवता का ३२ वाँ मन्त्र है और इसके पश्चात् उषा का ३३वाँ मन्त्र आएगा और ३४ से ४० तक प्रातःकाल की प्रार्थना के मन्त्र चलेंगे। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि (आरात्रि) = रात्रि तक, रात्रि के आने तक (पार्थिवं रजः) = यह पार्थिवलोक (पितुः) = उस पालक सूर्य के (धमाभि:) = तेजों से अप्रायि परिपूर्ण किया जाता है। [एषा वै पिता य एष सूर्यस्तपति । - शत० १४ । १।४।१५] । दिनभर सूर्य अपनी हिरण्यय किरणों से तेजस्विता का प्रसारण करता है। सूर्य प्रजाओं का प्राण है । सारा पार्थिवलोक- क्या वनस्पतियाँ और क्या प्राणी सभी सूर्यकिरणों के सम्पर्क में जीवित हो उठते हैं। धीरे-धीरे पृथिवी अपने अक्ष पर घूमती हुई सूर्य की ओर पीठ - सी कर लेती है और उस समय हमारे (दिवः) = आकाश के सदांसि स्थानों में बृहती-बढ़ती हुई यह (रात्रि) = रात (वितिष्ठसे) = विशेषरूप से स्थित होती है। रात्रि का राज्य चारों ओर फैल जाता है और उस समय (त्वेषम् तमः) = यह चमकता हुआ रात्रि का अन्धकार आवर्तते सर्वत्र वर्त्तमान होता है। हम रात्रि के अन्धकार से घिर से जाते हैं। हमारा क्षितिज अत्यन्त संक्षिप्त हो जाता है । इन्द्रियों का बाह्य प्रसार रुक जाता है। इतना ही नहीं इन्द्रियाँ बन्द-सी होकर अन्तर्मुख हो जाती हैं। उस सयम कभी-कभी स्वप्न में प्रभु दर्शन हो जाता है, इसीलिए योगदर्शन में ('स्वप्नज्ञानालम्बनं वा') = स्वप्न में दृष्ट प्रभुज्ञान को न भूलने का प्रयत्न करने के लिए कहा है । सुषुप्ति में तो 'समाधिसुषुप्तिमोक्षेषु ब्रह्मरूपता' इस सांख्यसूत्र के अनुसार हम कुछ ब्रह्मरूप में हो जाते हैं। एवं, यह रात्रि का अन्धकार भी हमारे लिए (त्वेषम्) = दीप्तिवाला हो जाता है। दिन के 'प्रकाश' में हमने सांसारिक वस्तुएँ देखी, तो रात्रि के उस अन्धकार में हमें प्रभु - दर्शन हुआ, अतः यह अन्धकार ('त्वेषम्') = दीप्तिवाला तो हुआ ही। उस ब्रह्मरूपता को प्राप्त करनेवाला यह ऋषि 'कुत्स' है, जिसने सब बुराइयों को समाप्त कर दिया है [कुथ हिंसायाम्] ।

    भावार्थ - भावार्थ - दिनभर सूर्य के प्रकाश से तेजस्विता को धारण करके खूब क्रियाशील रहकर हम रात में सुषुप्ति का अनुभव करें और ब्रह्म के प्रकाश को देख पाएँ।

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