अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 6
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
पैद्व॒ प्रेहि॑ प्रथ॒मोऽनु॑ त्वा व॒यमेम॑सि। अही॒न्व्यस्यतात्प॒थो येन॑ स्मा व॒यमे॒मसि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपैद्व॑ । प्र । इ॒हि॒ । प्र॒थ॒म: । अनु॑ । त्वा॒ । व॒यम् । आ । ई॒म॒सि॒ । अही॑न् । वि । अ॒स्य॒ता॒त् । प॒थ: । येन॑ । स्म॒ । व॒यम् । आ॒ऽई॒मसि॑ ॥४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
पैद्व प्रेहि प्रथमोऽनु त्वा वयमेमसि। अहीन्व्यस्यतात्पथो येन स्मा वयमेमसि ॥
स्वर रहित पद पाठपैद्व । प्र । इहि । प्रथम: । अनु । त्वा । वयम् । आ । ईमसि । अहीन् । वि । अस्यतात् । पथ: । येन । स्म । वयम् । आऽईमसि ॥४.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 6
विषय - नेता का कर्तव्य
पदार्थ -
१. (पैद्व) = हे गतिशील पुरुष! तू (प्रेहि) = प्रकृष्ट गतिवाला बन। (प्रथम:) = शक्तियों के विस्तारवाला हो [प्रथ विस्तारे]। (त्वा अनु वयं आ ईमसि) = तेरे पीछे-पीछे हम भी सब ओर गतिवाले हों। उत्तम नेता स्वयं गतिवाला होता हुआ अनुयायियों के लिए पथ-प्रदर्शक बनता है। २. हे पैद! आप (पथ:) = उस मार्ग से (हीन् व्यस्यतात्) = हिंसक तत्त्वों को दूर फेंकें-दूर करें, (येन) = जिस मार्ग से (वयं आ ईमसि स्म) = हम गतिवाले होते हैं। हमारे नेता हमारे मार्गों को विघ्न = बाधाशून्य करें।
भावार्थ -
हमारा नेतृत्व गतिशील व्यक्तियों के हाथ में हो। वे हमारे मार्ग से हिंसक तत्त्वों को दूर करें। हमारे लिए उनका जीवन पथ-प्रदर्शक हो।
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