अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - त्रिपदा यवमध्या गायत्री
सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
द॒र्भः शो॒चिस्त॒रूण॑क॒मश्व॑स्य॒ वारः॑ परु॒षस्य॒ वारः॑। रथ॑स्य॒ बन्धु॑रम् ॥
स्वर सहित पद पाठद॒र्भ: । शो॒चि: । त॒रूण॑कम् । अश्व॑स्य । वार॑: । प॒रु॒षस्य॑ । वार॑: । रथ॑स्य । बन्धु॑रम् ॥४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
दर्भः शोचिस्तरूणकमश्वस्य वारः परुषस्य वारः। रथस्य बन्धुरम् ॥
स्वर रहित पद पाठदर्भ: । शोचि: । तरूणकम् । अश्वस्य । वार: । परुषस्य । वार: । रथस्य । बन्धुरम् ॥४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
विषय - दर्भः, शोचिः, तरुणकम्
पदार्थ -
१.(दर्भ:) = कुशा घास (अश्वस्य) = [अश् व्याप्ती] कर्मों में व्यास रहनेवाले पुरुष की (वार:) = वरणीय वस्तु होती है। यज्ञवेदि पर कुशासन आदि के रूप में कुशा का प्रयोग होता है। यह पवित्र मानी गई है। यज्ञिय संस्कारों में इसका स्थान-स्थान पर प्रयोग होता है। २. इसी प्रकार (शोचि:) = ज्ञान की दीसि (परुषस्य) = शत्रुओं के प्रति कठोर [sharp. violent, keen]-शत्रुसंहारक पुरुष की (वार:) = वरणीय वस्तु है। ज्ञानानि में हो तो वह इन काम, क्रोध, लोभ को भस्म कर पाएगा। ३. (तरूणकम्) = पृथिवी से अंकुरित [sprout] होनेवाले ये वानस्पतिक पदार्थ (रथस्य बन्धुरम्) = इस शरीर-रथ के शिखर है। इन पदार्थों का प्रयोग करता हुआ ही एक व्यक्ति इस शरीर-रथ के सौन्दर्य को स्थिर रख पाता है [बन्धुर-beautiful]|
भावार्थ -
हम यज्ञवेदि को कुशादि स्तीर्ण करके यज्ञ करनेवाले बनें, ज्ञानज्योति में वासनाओं को दग्ध कर दें तथा वानस्पतिक पदार्थों का प्रयोग करते हुए शरीर-रथ के सौन्दर्य को नष्ट न होने दें।
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