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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गरुत्मान् देवता - तक्षकः छन्दः - त्रिपदा यवमध्या गायत्री सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
    66

    द॒र्भः शो॒चिस्त॒रूण॑क॒मश्व॑स्य॒ वारः॑ परु॒षस्य॒ वारः॑। रथ॑स्य॒ बन्धु॑रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द॒र्भ: । शो॒चि: । त॒रूण॑कम् । अश्व॑स्य । वार॑: । प॒रु॒षस्य॑ । वार॑: । रथ॑स्य । बन्धु॑रम् ॥४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दर्भः शोचिस्तरूणकमश्वस्य वारः परुषस्य वारः। रथस्य बन्धुरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दर्भ: । शोचि: । तरूणकम् । अश्वस्य । वार: । परुषस्य । वार: । रथस्य । बन्धुरम् ॥४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (4)

    विषय

    सर्प रूप दोषों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (दर्भः) दाभ घास [सर्पों का] (शोचिः) प्रकाश, (तरूणकम्) छोटी नवीन [दाभ] [उनके] (अश्वस्य) घोड़े की (वारः) पूँछ (परुषस्य) कड़े [दाभ] की (वारः) पूँछ [सिरा] [उनके] (रथस्य) रथ की (बन्धुरम्) बैठक है ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे साँप आदि छिपकर रहते हैं, वैसे ही चोर आदि दुष्कर्मी छिपे रहते हैं ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(दर्भः) तृणविशेषः। कुशः। काशः (शोचिः) प्रकाशः (तरूणकम्) ह्रस्वे च। पा० ५।३।८६। इति क प्रत्ययः। अन्येषामपि दृश्यते। पा० ६।३।१३७। इति दीर्घः। क्षुद्रनवीनदर्भः (अश्वस्य) घोटकस्य (वारः) बालः। पुच्छः (परुषस्य) कठोरदर्भस्य (वारः) (रथस्य) (बन्धुरम्) अ० ३।९।३। स्थितिस्थानम् ॥

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    विषय

    दर्भः, शोचिः, तरुणकम्

    पदार्थ

    १.(दर्भ:) = कुशा घास (अश्वस्य) = [अश् व्याप्ती] कर्मों में व्यास रहनेवाले पुरुष की (वार:) = वरणीय वस्तु होती है। यज्ञवेदि पर कुशासन आदि के रूप में कुशा का प्रयोग होता है। यह पवित्र मानी गई है। यज्ञिय संस्कारों में इसका स्थान-स्थान पर प्रयोग होता है। २. इसी प्रकार (शोचि:) = ज्ञान की दीसि (परुषस्य) = शत्रुओं के प्रति कठोर [sharp. violent, keen]-शत्रुसंहारक पुरुष की (वार:) = वरणीय वस्तु है। ज्ञानानि में हो तो वह इन काम, क्रोध, लोभ को भस्म कर पाएगा। ३. (तरूणकम्) = पृथिवी से अंकुरित [sprout] होनेवाले ये वानस्पतिक पदार्थ (रथस्य बन्धुरम्) = इस शरीर-रथ के शिखर है। इन पदार्थों का प्रयोग करता हुआ ही एक व्यक्ति इस शरीर-रथ के सौन्दर्य को स्थिर रख पाता है [बन्धुर-beautiful]|

    भावार्थ

    हम यज्ञवेदि को कुशादि स्तीर्ण करके यज्ञ करनेवाले बनें, ज्ञानज्योति में वासनाओं को दग्ध कर दें तथा वानस्पतिक पदार्थों का प्रयोग करते हुए शरीर-रथ के सौन्दर्य को नष्ट न होने दें।

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    भाषार्थ

    (दर्भः) दर्भ नामक ओषधि, (शोचिः) धधकता अङ्गारा, (तरूणकम्) और तरूणक ओषधि (अश्वस्य१) अघाश्वनामक सर्प के विष को (वारः) निवारित करती है, (परुषस्य) उग्र सर्प के उग्र विष (मन्त्र ३) को (वारः) निवारित करती है। (रथस्य) विष की गति को (बन्धुरम्) बांध देती हैं, फैलने नहीं देती।

    टिप्पणी

    [१. “अघाश्व" नामक सर्प का निर्देश आधे नाम द्वारा किया है, जैसे देवदत्त को देव या दत्त द्वारा भी पुकारा जाता है। अघाश्व (मन्त्र १०)। यह अतिविष वाला सर्प है जो कि अश्व का भी घातक है "आहन्ति अश्वमिति, अघाश्वः” । तथा अघं हन्तर्निर्ह्रसितोपसर्ग आहन्तीति" (निरुक्त ६।३।१२; अनवायम् ४३, तथा किमीदिने ४४ पदों की व्याख्या में)।]

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    विषय

    सर्प विज्ञान और चिकित्सा।

    भावार्थ

    विष के बांधने वाले पदार्थों का वर्णन करते हैं। (दर्भः) दाभ, कुशा नाम घास, (शोचिः) जलता चमकता हुआ आग का अंगारा, (तरूणकम्) तरूणक या क-तृण (अश्वस्य वारः) ‘अश्व’ विशेष सरपत या कनेर के बाल या जल और (परुषस्य वारः) परुष नाम के सरपत के बाल या जल ये पदार्थ (रथस्य) रथ रस या सर्पों के विष के (बन्धुरम्) बांधने वाले पदार्थ हैं। ग्रीफिथ के मत में—सांप जिन घास, सरकण्डों में रहता है वही उसके रथ हैं। उनमें दर्भ सांपों की चमक है, उसके नये फूल सांपों के रथ के घोड़ों के बाल हैं और सरपत के बाल उनके रथ की बैठक है। यह असंगत बातें हैं। दर्भ=कुश। शोचिः=अग्निः, सूर्य का ताप। ‘अश्वस्य वार’=अश्व के बाल, ये घोड़े के बाल नहीं प्रत्युत यह एक ‘काश’ या सरपत की जाति है जिस को राजनिघण्टु में ‘अश्वाल’ शब्द से कहा गया है। ‘अन्योऽशिरीमिशि गुण्डा वालो नीरजः शरः।’ यह पानी में बहुत फैलता है जिसकी चटाइयां भी बनती हैं। उसके पत्ते विशेष रूप से दाह-तृष्णा को शान्त करते हैं। अथवा—‘अश्वस्य वार’ करवीरकों का भी वाचक होना सम्भव है। आयुर्वेद में उसे ‘अश्वमार’ ‘हयमार’ आदि कहा जाता है, वेद में उसे ‘अश्व वार’ कहा गया है। वह तीव्र विषघ्न पदार्थ है। ‘परुषस्य वारः’—परुष नामक छोटी दाभ की जाति है, इसको राजनिघण्टु ‘खर’ नाम से पुकारता है। यह पित्तोल्वण, दाह, विष आदि का नाशक है। अथवा पुरुष=पोरुओं वाला नड़, नल है जो “नलः स्यादधिको वीर्यः शस्यते रसकर्मणि” औरों से अधिक वीर्यवाला और रस-कर्म या विषचिकित्सा में अधिक उपयोगी है या फालसा=‘परूषक’, तरूणक=तरुणक या तरुण=कत्तृण नामक ओषधि। यह “भूतग्रहविषघ्नं च व्रणक्षतविरोपणम्” भूतग्रह और विषका नाशक व्रण क्षतादि की रोपक ओषधि है। इन पदार्थों का प्रयोग आयुर्वेद, डाक्टरी विद्या से जानना चाहिये।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। गरुत्मान् तक्षको देवता। २ त्रिपदा यवमध्या गायत्री, ३, ४ पथ्या बृहत्यौ, ८ उष्णिग्गर्भा परा त्रिष्टुप्, १२ भुरिक् गायत्री, १६ त्रिपदा प्रतिष्ठा गायत्री, २१ ककुम्मती, २३ त्रिष्टुप्, २६ बृहती गर्भा ककुम्मती भुरिक् त्रिष्टुप्, १, ५-७, ९, ११, १३-१५, १७-२०, २२, २४, २५ अनुष्टुभः। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Snake poison cure

    Meaning

    Darbha herb, burning ember, Tarunaka herb, these are antidotes to ‘aghashva’s and parusha’s poison, they are, like the nave, strong aids to the cure of poison.

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    Translation

    The sacred grass (darbha); the fire, young shoot or tarūņaka (of plants); horse’s hair, man’s hair, the chariot’s nave (are the cures for snake-bite). (bandhur = nave (of a chariot); asva-vara = horse- hair)

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    Translation

    Darbhagrass; the heat of the sun; Tarunaka, the Tarunak plant; shoot of Ashva, the Ashvagndha orMunja; the shoot of Parusha. the small Darbha-grass are the anti-poisonous medicines for the ratha, the poisonous fluid of the serpents.

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    Translation

    The Durbha grass, fire, the grass sprout, Ashvaivara, Parushawara act as antidotes against the serpents’ poison.

    Footnote

    Ashvawara and Parushawara are medicines that remove the poison of the serpents. Their details are given in Raj Nighantu. In Ayurveda Ashvawara is named as Ashvamara and Hayamara.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(दर्भः) तृणविशेषः। कुशः। काशः (शोचिः) प्रकाशः (तरूणकम्) ह्रस्वे च। पा० ५।३।८६। इति क प्रत्ययः। अन्येषामपि दृश्यते। पा० ६।३।१३७। इति दीर्घः। क्षुद्रनवीनदर्भः (अश्वस्य) घोटकस्य (वारः) बालः। पुच्छः (परुषस्य) कठोरदर्भस्य (वारः) (रथस्य) (बन्धुरम्) अ० ३।९।३। स्थितिस्थानम् ॥

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