अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 18
ऋषिः - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
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इन्द्रो॑ जघान प्रथ॒मं ज॑नि॒तार॑महे॒ तव॑। तेषा॑मु तृ॒ह्यमा॑णानां॒ कः स्वि॒त्तेषा॑मस॒द्रसः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । ज॒घा॒न॒ । प्र॒थ॒मम् । ज॒नि॒तार॑म् । अ॒हे॒ । तव॑ । तेषा॑म् । ऊं॒ इति॑ । तृ॒ह्यमा॑णानाम् । क: । स्वि॒त् । तेषा॑म् । अ॒स॒त् । रस॑: ॥४.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो जघान प्रथमं जनितारमहे तव। तेषामु तृह्यमाणानां कः स्वित्तेषामसद्रसः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । जघान । प्रथमम् । जनितारम् । अहे । तव । तेषाम् । ऊं इति । तृह्यमाणानाम् । क: । स्वित् । तेषाम् । असत् । रस: ॥४.१८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सर्प रूप दोषों के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(अहे) हे महाहिंसक [साँप !] (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवान् पुरुष ने (तव) तेरे (जनितारम्) जन्मदाता को (प्रथमम्) पहिले (जघान) मारा था। (तेषाम् तेषाम्) उन्हीं (तृह्यमाणानाम्) छिदे हुओं का (उ) ही (कः स्वित्) कौनसा (रसः) रस [पराक्रम] (असत्) होवे ॥१८॥
भावार्थ
बलवान् प्रतापी पुरुष हिंसक जीवों के बड़े और छोटों को नाश करे ॥१८॥
टिप्पणी
१८−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (जघान) नाशितवान् (प्रथमम्) आदौ (जनितारम्) जनयितारं जनकम् (अहे) हे महाहिंसक (तव) (तेषाम् तेषाम्) तेषामेव (उ) निश्चयेन (तृह्यमाणानाम्) हिंस्यमानानाम् (कः स्वित्) (असत्) भवेत् (रसः) पराक्रमः ॥
विषय
'अहि के जनिता' का विनाश
पदार्थ
१. है (अहे) = विहिंसन की वृत्ति! (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (तव) = तेरे (जनितारम्) = उत्पन्न करनेवाले भाव को ही (प्रथमं जघान) = सबसे पहले नष्ट कर डालता है। जिन 'काम, क्रोध, लोभ' के कारण यह हिंसनवृत्ति उत्पन्न होती है, उन कामादि को ही यह जितेन्द्रिय पुरुष नष्ट कर देता है। २. (उ) = निश्चय से (तुह्यमाणानाम्) = नष्ट किये जाते हुए (तेषां तेषाम्) = उन-उन काम-क्रोधादि भावों का (स्वित्) = भला (कः रस: असत्) = क्या रस अवशिष्ट हो सकता है? जब मनुष्य काम-क्रोधादि के नाश के प्रयन में लगता है तब इन हिंसन वृत्तियों का स्वयं ही नाश हो जाता है।
भावार्थ
हम हिंसन वृत्तियों के मूलभूत काम, क्रोध, लोभादि को समाप्त करने का प्रयत्न करें। इन्हें नष्ट करके हम हिंसन-वृत्तियों से दूर हों।
भाषार्थ
(अहे) हे सांप ! (तव जनितारम्) तेरे जन्म दाता माता-पिता को (इन्द्रः) इन्द्र ने (प्रथमम्) पहिले ही (जघान) मार दिया है, (तेषाम् उ तृह्यमाणानाम्) उन के हिंसित अर्थात् मृत हो जाने पर, (तेषाम्) उनका (रसः) विषरस (कः स्विद्) कौन सा (असत्) विद्यमान रह सकता है।
टिप्पणी
["अहे"! में एकवचन जाति की दृष्टि से है, जात्येकवचन है, क्यों कि मन्त्र के उत्तरार्ध में "तेषाम्" तथा "तृह्यमाणानाम्" में बहुवचन है। अभिप्राय यह कि सर्पों के उत्पादकों को पूर्णरूप से मार देने पर सांपों का सर्वथा अभाव किया जा सकता है। जब सांप न रहें तो उन का विषरस कहां रह सकता है। वेद की आज्ञा या निर्देश सर्पजाति के सर्वथा विनाश के लिये है। "जघान" में लिट् लकार वर्तमानार्थक है। यथा “छन्दसि लुङ्लुङ्लिटः" (अष्टा० ३।४।६) द्वारा छन्द (वेद) में-लुङ्, लङ् और लिट् विकल्पेन सब कालों में प्रयुक्त होते हैं] ।
विषय
सर्प विज्ञान और चिकित्सा।
भावार्थ
हे (अहे) अहे ! हे सर्प ! (तव) तेरे (प्रथमं) सब से प्रथम (जनितारं) उत्पादक को (इन्द्रः) इन्द्र नामक ओषधि (जघान) विनाश करे। (तेषां) उन (तृह्यमाणानाम्) विनाश किये जाते हुओं में से (तेषाम्) उन कुछ एक का ही (कः स्वित्) क्या कुछ (रसः) रस या विष (असत्) उत्पन्न होना सम्भव है।
टिप्पणी
‘तेषां वस्तृह्य’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। गरुत्मान् तक्षको देवता। २ त्रिपदा यवमध्या गायत्री, ३, ४ पथ्या बृहत्यौ, ८ उष्णिग्गर्भा परा त्रिष्टुप्, १२ भुरिक् गायत्री, १६ त्रिपदा प्रतिष्ठा गायत्री, २१ ककुम्मती, २३ त्रिष्टुप्, २६ बृहती गर्भा ककुम्मती भुरिक् त्रिष्टुप्, १, ५-७, ९, ११, १३-१५, १७-२०, २२, २४, २५ अनुष्टुभः। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Snake poison cure
Meaning
O snake, Indra first destroyed your progenitor. Once your progenitors are destroyed, what poison can now be surviving?
Translation
O serpent, the resplendent one has killed your first progenitor. What power can there be in them, who have been thus shattered.
Translation
This Indra herb kills the serpent who engenders this and other snakes and when these snakes are pierced and bored what sap and vigor of theirs will remain.
Translation
O serpent, a skilled physician hath destroyed the sire who first engendered thee; and whenth ese snakes are pierced and bored what poison and sap will be theirs!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१८−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् पुरुषः (जघान) नाशितवान् (प्रथमम्) आदौ (जनितारम्) जनयितारं जनकम् (अहे) हे महाहिंसक (तव) (तेषाम् तेषाम्) तेषामेव (उ) निश्चयेन (तृह्यमाणानाम्) हिंस्यमानानाम् (कः स्वित्) (असत्) भवेत् (रसः) पराक्रमः ॥
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