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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 22
    ऋषिः - गरुत्मान् देवता - तक्षकः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
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    यद॒ग्नौ सूर्ये॑ वि॒षं पृ॑थि॒व्यामोष॑धीषु॒ यत्। का॑न्दावि॒षं क॒नक्न॑कं नि॒रैत्वैतु॑ ते वि॒षम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒ग्नौ । सूर्ये॑ । वि॒षम् । पृ॒थि॒व्याम् । ओष॑धीषु । यत् । का॒न्दा॒ऽवि॒षम् । क॒नक्न॑कम् । नि॒:ऽऐतु॑ । आ । ए॒तु॒ । ते॒ । वि॒षम् ॥४.२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदग्नौ सूर्ये विषं पृथिव्यामोषधीषु यत्। कान्दाविषं कनक्नकं निरैत्वैतु ते विषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अग्नौ । सूर्ये । विषम् । पृथिव्याम् । ओषधीषु । यत् । कान्दाऽविषम् । कनक्नकम् । नि:ऽऐतु । आ । एतु । ते । विषम् ॥४.२२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 22
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    हिन्दी (4)

    विषय

    सर्प रूप दोषों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे सर्प !] (यत् विषम्) जो विष (अग्नौ) अग्नि में, (सूर्ये) सूर्य में, (पृथिव्याम्) पृथिवी में, और (यत्) जो (ओषधीषु) ओषधियों [अन्न आदि पदार्थों] में है। (कान्दाविषम्) मेघ के उत्पन्न [ओषधियों] में व्यापक, (कनक्नकम्) गति [उद्योग] नाशक (ते विषम्) तेरा विष (निरैतु) निकल जावे, (आ एतु) [निकल] आवे ॥२२॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि अग्नि आदि पदार्थों में अति वृद्धि वा अति न्यूनता के कारण सर्प के विष के समान रोगकारक क्रिया को त्याग कर विचारपूर्वक समता ग्रहण करके स्वस्थ रहें ॥२२॥

    टिप्पणी

    २२−(कान्दाविषम्) अब्दादयश्च। उ० ४।९८। कनी दीप्तिकान्तिगतिषु-द प्रत्ययः। कन्दो मेघः। तस्यापत्यम्। पा० ४।१।९२। अण्, टाप् कन्दात् मेघात् जातासु ओषधीषु विषं प्रवेशो यस्य तत् (कनक्नकम्) कनी दीप्त्यादिषु अच्+क्नथ वधे−ड, स्वार्थे-कन्। गतिनाशकम्। उद्योगवर्जकम् (ऐतु) आगच्छतु। अन्यत् सुगमं गतं च ॥

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    विषय

    कान्दाविषम् कनन्ककम्

    पदार्थ

    १. (यत्) = जो (विषम्) = जल (अग्नौ) = अग्नि में है [अग्ने: आपः], (सूर्ये) = सूर्य में है [सूर्यकिरणों से बादलों का निर्माण होकर यह जल प्रास होता है ('सहस्त्रगुणमुत्स्त्रष्टुं आदत्ते हि रसं रविः )(यत) = जो पृथिव्याम्-पृथिवी में है [कूप आदि से प्राप्त होता है] जो ओषधीषु-औषधियों में रसरूप है, वह जल ऐतु-हमें सर्वथा प्राप्त हो। २. हे हिंसावृत्ते! ते-तेरा जो कान्दाविषम-[विष् व्यासौ, कन्द knot] ग्रन्थियों में जोड़ों में व्याप्त हो जानेवाला कनक्नकम्-[कन दीसौ, क्रथ हिंसायाम्] दीप्ति को नष्ट कर देनेवाला विषम्-विष है, वह निरैतु-सब प्रकार से बाहर चला जाए।

    भावार्थ

    हम अग्नि से उत्पन्न होनेवाले-सूर्य से मेघों द्वारा प्राप्त कराये जानेवाले-पृथिवी से दिये जानेवाले व ओषधिरसों में प्राप्त होनेवाले जलों को प्राप्त करें। हिंसावृत्ति से उत्पन्न हो जानेवाले, जोड़ों में व्यास, दीसिनाशक विष को दूर करें।

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    भाषार्थ

    (यत्) जो (अग्नौ सूर्ये) अग्नि और सूर्य में (विषम्) विष है, (यत्) जो (पृथिव्याम् ओषधीषु) पृथिवी में और [विषैली] ओषधियों में है। (कान्दाविषम्) जो कन्दों में विष, (कनक्नकम्) तथा जो अतितीक्ष्ण (ते) तेरा (विषम्) विष है, वह (निर् ऐतु) [तेरे शरीर से] बाहर निकल आए, (आ एतु) अवश्य बाहर आ जाय।

    टिप्पणी

    [अग्नि में विष है "जलाना"। सूर्य में विष है "sun stroke" आदि। पृथिवी में विष है संखिया, पारद आदि। इसी प्रकार कई ओषधियां और कई कन्द भी विषैले होते हैं। विषाक्त मनुष्य के प्रति कहा है कि तेरे शरीर में जो भी विष प्रविष्ट हुआ है वह बाहर निकल आएगा, अवश्य निकल आएगा। कनक्नकम्=कनी (दीप्तौ, स्वादिः)+ यङ्लुक्+कम् (कृ, करोति)=अति दीप्ति अर्थात् जलन पैदा करने वाला विष। "कनिक्नकम्" पाठ भी मिलता है]।

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    विषय

    सर्प विज्ञान और चिकित्सा।

    भावार्थ

    (यत्) जो (विषम्) विष (अग्नौ) अग्नि में है (पृथिव्यां) पृथिवी में और (ओषधीषु) ओषधियों में है और जो (कान्दाविषं) कन्दों में और (कनक्नकं) धतूरे आदि मादक पदार्थों में है। हे सर्प ! उनके द्वारा (ते विषम्) तेरा विष (निर् एतु, एतु) सर्वथा दूर हो।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘कान्दाविषं करिऋदं’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। गरुत्मान् तक्षको देवता। २ त्रिपदा यवमध्या गायत्री, ३, ४ पथ्या बृहत्यौ, ८ उष्णिग्गर्भा परा त्रिष्टुप्, १२ भुरिक् गायत्री, १६ त्रिपदा प्रतिष्ठा गायत्री, २१ ककुम्मती, २३ त्रिष्टुप्, २६ बृहती गर्भा ककुम्मती भुरिक् त्रिष्टुप्, १, ५-७, ९, ११, १३-१५, १७-२०, २२, २४, २५ अनुष्टुभः। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Snake poison cure

    Meaning

    Whatever poison there is in fire, in the sun, and whatever there is in earth and in herbs and trees, whatever poison there is in tubers and in specially poisonous herbs, O snake, (all that you have collected from these) let it go out.

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    Translation

    What poison is there in the fire, in the Sun, in the earth and in the herbs; thē poison, which is stored in tubers (kāndāvisa) and is véry effective, may all that come out of you; may it pass away.

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    Translation

    Whatever poison is contained in the earth whatever is contained in fire, sun and the herbs and whatever poison is contained Kanaknak, and roots let thereby pass away the venom of this snake.

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    Translation

    All poison that the Sun and fire, all that the earth and plants contain, the poison the herbs receive through the cloud, the paralysing poison, may they all mix with thine, O snake, and turn out thy venom!

    Footnote

    Poison acts as an antidote against poison.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २२−(कान्दाविषम्) अब्दादयश्च। उ० ४।९८। कनी दीप्तिकान्तिगतिषु-द प्रत्ययः। कन्दो मेघः। तस्यापत्यम्। पा० ४।१।९२। अण्, टाप् कन्दात् मेघात् जातासु ओषधीषु विषं प्रवेशो यस्य तत् (कनक्नकम्) कनी दीप्त्यादिषु अच्+क्नथ वधे−ड, स्वार्थे-कन्। गतिनाशकम्। उद्योगवर्जकम् (ऐतु) आगच्छतु। अन्यत् सुगमं गतं च ॥

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