Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 4 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 13
    ऋषिः - गरुत्मान् देवता - तक्षकः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
    36

    ह॒तास्तिर॑श्चिराजयो॒ निपि॑ष्टासः॒ पृदा॑कवः। दर्विं॒ करि॑क्रतं श्वि॒त्रं द॒र्भेष्व॑सि॒तं ज॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ह॒ता: । तिर॑श्चिऽराजय: । निऽपि॑ष्टास: । पृदा॑कव: । दर्वि॑म् । करि॑क्रतम् । श्वि॒त्रम् । द॒र्भेषु॑ । अ॒सि॒तम् । ज॒हि॒ ॥४.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हतास्तिरश्चिराजयो निपिष्टासः पृदाकवः। दर्विं करिक्रतं श्वित्रं दर्भेष्वसितं जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हता: । तिरश्चिऽराजय: । निऽपिष्टास: । पृदाकव: । दर्विम् । करिक्रतम् । श्वित्रम् । दर्भेषु । असितम् । जहि ॥४.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सर्प रूप दोषों के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (तिरश्चिराजयः) तिरछी धारीवाले (पृदाकवः) फुँसकारनेवाले [साँप] (हताः) मार डाले गये और (निपिष्टासः) कुचिल डाले गये [हों]। (दर्भेषु) दाभों में (दर्विम्) फन को (करिक्रतम्) बड़ा करनेवाले, (श्वित्रम्) श्वेत और (असितम्) काले [साँप] को (जहि) मार डाल ॥१३॥

    भावार्थ

    मनुष्य महाउपद्रवियों को साँपों के समान मारें ॥१३॥

    टिप्पणी

    १३−(हताः) नाशिताः (तिरश्चिराजयः) अ० ३।२७।२। तिर्यगवस्थितरेखाः (निपिष्टासः) अत्यन्तचूर्णिताः (पृदाकवः) कुत्सितशब्दाः। सर्पाः (दर्विम्) अ० ४।१४।७। दॄ विदारणे-विन्। सूपचालनपात्रवद्विदारकं फणम् (करिक्रतम्) दाधर्तिदर्धर्ति०। पा० ७।४।६५। करोतेर्यङ्लुकि शतृ। भृशं कुर्वन्तम् (श्वित्रम्) म० ५। श्वेतम् (दर्भेषु) काशेषु (असितम्) म० ५। कृष्णम् (जहि) नाशय ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    दर्विम् करिक्रतं [जहि]

    पदार्थ

    १. (तिरश्चिराजय:) = कुटिलता [crooked] व छल-छिद्र की पंक्तियाँ (हता:) = नष्ट की गई हैं। (पृदाकव:) = [पिपर्ति स्वम्, 'पिपर्तेर्दाकुर्हस्वश्च'] आत्मम्भरिता व स्वार्थ को वृत्तियाँ (निपिष्टास:) = पीस डाली गई हैं। २. (दर्विम्) = विदारण की वृत्ति को (करिक्रतम्) = अतिशयेन कृन्तन [छेदन] की वृत्ति को (श्वित्रम्) = कुष्ठादि रोगों को व (असितम्) = कृष्ण [मलिन] कर्मों को (दर्भेषु) = यज्ञार्थ यज्ञवेदि पर कुशाओं के आस्तिर्ण होने पर (जहि) = नष्ट कर डाल।

    भावार्थ

    हम यज्ञशील बनें। यज्ञीय वृत्ति के द्वारा हम 'कुटिलता, स्वार्थ, विदारणवृत्ति, छेदन-भेदन की वृत्ति, रोगों व अशुभ कर्मों को नष्ट कर डालें।'

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (तिरश्चिराजयः) टेढ़ी धारियों वाले सर्प (हताः) मार दिये हैं (पृदाकवः) पृदाकु-सर्प (निपिष्टासः) पीस दिये हैं। (दर्विम्) कड़छीसदृश फण (करिक्रतम्) फैलाने वाले को, (श्वित्रम्) सुफेदकुष्ठ सदृश वर्ण वाले को, (दर्भेषु) दर्भ-घासों में रहने वाले (असितम्) काले सांप को (जहि) तू मार डाल।

    टिप्पणी

    [जहि = वज्री इन्द्र को या पैद्व को कहा है कि तू मार डाल]।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Snake poison cure

    Meaning

    Killed are the snakes with stripes, crushed are the poisonous ones. O Paidva, O Indra, kill the Darvi that spreads its hood, the white one and the black hiding in the grasses.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Killed are the snakes with crossed lines (tirasci-rajayah); crushed are the vipers (prdāku). Kill the hooded snake (cobra), karikratam, white and also the black snake in the kusa grass.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The serpents in row have been slain, Pridakus, the most venomous ones are brayed to bits. O Man! kill snakes called as Darvi, Karikrat, Shvitra and Asita in the Darbha-grass.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Serpents with transverse streaks have been slain, and vipers crushed and brayed to bits. Slay Darvi, Karikrata, white and black serpents in the Durbha grass.

    Footnote

    Darvi and Karikrata are species of serpents.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(हताः) नाशिताः (तिरश्चिराजयः) अ० ३।२७।२। तिर्यगवस्थितरेखाः (निपिष्टासः) अत्यन्तचूर्णिताः (पृदाकवः) कुत्सितशब्दाः। सर्पाः (दर्विम्) अ० ४।१४।७। दॄ विदारणे-विन्। सूपचालनपात्रवद्विदारकं फणम् (करिक्रतम्) दाधर्तिदर्धर्ति०। पा० ७।४।६५। करोतेर्यङ्लुकि शतृ। भृशं कुर्वन्तम् (श्वित्रम्) म० ५। श्वेतम् (दर्भेषु) काशेषु (असितम्) म० ५। कृष्णम् (जहि) नाशय ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top