अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 25
ऋषिः - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
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अङ्गा॑दङ्गा॒त्प्र च्या॑वय॒ हृद॑यं॒ परि॑ वर्जय। अधा॑ वि॒षस्य॒ यत्तेजो॑ऽवा॒चीनं॒ तदे॑तु ते ॥
स्वर सहित पद पाठअङ्गा॑त्ऽअङ्गात् । प्र । च्य॒व॒य॒ । हृद॑यम् । परि॑ । व॒र्ज॒य॒ । अध॑ । वि॒षस्य॑ । यत् । तेज॑: । अ॒वा॒चीन॑म् । तत् । ए॒तु॒ । ते॒ ॥४.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
अङ्गादङ्गात्प्र च्यावय हृदयं परि वर्जय। अधा विषस्य यत्तेजोऽवाचीनं तदेतु ते ॥
स्वर रहित पद पाठअङ्गात्ऽअङ्गात् । प्र । च्यवय । हृदयम् । परि । वर्जय । अध । विषस्य । यत् । तेज: । अवाचीनम् । तत् । एतु । ते ॥४.२५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सर्प रूप दोषों के नाश का उपदेश।
पदार्थ
[हे ओषधि !] (अङ्गादङ्गात्) अङ्ग-अङ्ग से [विष को] (प्र च्यवय) सरका दे और (हृदयम्) हृदय को [उस से] (परि वर्जय) त्याग करा दे। (अध) फिर (विषस्य) विष का (यत् तेजः) जो तेज [प्रचण्डता] है, (तत्) वह (ते) तेरे लिये (अवाचीनम्) नीचे (एतु) जावे ॥२५॥
भावार्थ
मनुष्य सब रोगों को ओषधि द्वारा शान्त करके प्रसन्न रहें ॥२५॥
टिप्पणी
२५−(अङ्गादङ्गात्) (प्र च्यवय) बहिर्गमय (हृदयम्) (परि) सर्वतः (वर्जय) रोधय (अध) अथ (विषस्य) (यत्) (तेजः) तीक्ष्णता (अवाचीनम्) अधोमुखं गतम् (तत्) (एतु) गच्छतु (ते) तुभ्यम् ॥
विषय
विषस्य तेजः अवाचीनम्
पदार्थ
१. (अङ्गात् अङ्गात् प्रच्यावय) = एक-एक अङ्ग से विष के इस तेज को प्रच्युत कर दे। (हृदयं परिवर्जय) = हृदय को इस विष के तेज से पृथक् कर दे। 'इा, द्वेष, क्रोध' आदि से भी शरीर में विष उत्पन्न हो जाता है। इस विष को हम प्रत्येक अङ्ग से दूर करें- हृदय में तो इसे उत्पन्न ही न होने दें। २. (अध) = अब (विषस्य यत् तेजः) = विष का जो तेज है, (तत्) = वह (ते अवाचीनं एतु) = तेरे नीचे गतिबाला हो, अर्थात् तू उसे पाँव तले रौंद डाल।
भावार्थ
हम ईर्ष्या आदि से उत्पन्न हो जानेवाले विष को अपने से दूर करें-हृदय में तो यह विष स्थान न हो पाए। इस विष के तेज को हम पादाक्रान्त कर पाएँ।
भाषार्थ
हे तौदी! तू (अङ्गात् अङ्गात्) प्रत्येक अङ्ग से (प्र च्यावय) विष को च्युत कर दे, (हृदयम्) हृदय को (परिवर्जय) विष के प्रभाव से सर्वथा वर्जित कर दे। (अधा) तत्पश्चात् (विषस्य) विष का (यत्) जो (तेजः) उग्रपन है (ते) हे विषाक्त ! तेरा (तत्) वह विष (अवाचीनम्, एतु) अधोगत हो जाय, तेरे पैरों द्वारा निकल जाय।
विषय
सर्प विज्ञान और चिकित्सा।
भावार्थ
(अङ्गात् अङ्गात्) अंग अंग से (प्र च्यावय) विष को चुआ डाल। (हृदयं) हृदय को विष से (परि वर्जय) छुड़ा दे, बच्चा। (अध) और तब (विषस्य) विष का (यत् तेजः) जो तेज है (तत्) वह (ते) तेरे शरीर से (अवाचीनम्) नीचे (एतु) उतर आवे। यदि शरीर में जहर फैल जाय तो उसके वेग को कम करने के लिये स्थान स्थान पर से क्षत करके रुधिर बहा दे। इस प्रकार विष का वेग कम हो जाता है और उतर जाता है।
टिप्पणी
‘हृदयोपरि’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। गरुत्मान् तक्षको देवता। २ त्रिपदा यवमध्या गायत्री, ३, ४ पथ्या बृहत्यौ, ८ उष्णिग्गर्भा परा त्रिष्टुप्, १२ भुरिक् गायत्री, १६ त्रिपदा प्रतिष्ठा गायत्री, २१ ककुम्मती, २३ त्रिष्टुप्, २६ बृहती गर्भा ककुम्मती भुरिक् त्रिष्टुप्, १, ५-७, ९, ११, १३-१५, १७-२०, २२, २४, २५ अनुष्टुभः। षड्विंशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Snake poison cure
Meaning
O Taudi, remove the poison from every part of the body, cleanse the heart free of poison. O patient, let the intensity of poison go down and out of your body.
Translation
Remove the poison from eaçh and every part of the body. Keep it away from the heärt. Then, whatever strength of -poison is there, may that pass downward from you.
Translation
O man! drive away the venom from every part of the body and avoid the heart and whatever is the effect of the poison go downward and let it away from you.
Translation
O medicine! from every member drive away the venom, and free the heart from it. Thus let the poison’s burning heat pass downward and away from thee.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२५−(अङ्गादङ्गात्) (प्र च्यवय) बहिर्गमय (हृदयम्) (परि) सर्वतः (वर्जय) रोधय (अध) अथ (विषस्य) (यत्) (तेजः) तीक्ष्णता (अवाचीनम्) अधोमुखं गतम् (तत्) (एतु) गच्छतु (ते) तुभ्यम् ॥
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