अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 8
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - उष्णिग्गर्भा परात्रिष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
संय॑तं॒ न वि ष्प॑र॒द्व्यात्तं॒ न सं य॑मत्। अ॒स्मिन्क्षेत्रे॒ द्वावही॒ स्त्री च॒ पुमां॑श्च॒ तावु॒भाव॑र॒सा ॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽय॑तम् । न । वि । स्प॒र॒त् । वि॒ऽआत्त॑म् । च । सम् । य॒म॒त् । अ॒स्मिन् । क्षेत्रे॑ । द्वौ । अही॒ इति॑ । स्त्री । च॒ । पुमा॑न् । च॒ । तौ । उ॒भौ । अ॒र॒सा ॥४.८॥
स्वर रहित मन्त्र
संयतं न वि ष्परद्व्यात्तं न सं यमत्। अस्मिन्क्षेत्रे द्वावही स्त्री च पुमांश्च तावुभावरसा ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽयतम् । न । वि । स्परत् । विऽआत्तम् । च । सम् । यमत् । अस्मिन् । क्षेत्रे । द्वौ । अही इति । स्त्री । च । पुमान् । च । तौ । उभौ । अरसा ॥४.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 8
विषय - हिंसासामर्थ्य वञ्चन
पदार्थ -
१. साँप मुख खोलकर डसता है-इसने के समय मुख को भींचता है। यदि उसका खुला हुआ मुख बन्द न हो सके और बन्द हुआ-हुआ खुल न सके तो यह दशन-क्रिया न हो पाएगी। उस स्थिति का ध्यान करते हुए कहते हैं कि (संयतम्)= बन्द हुआ-हुआ मुख (न विष्परत्) = [स्मृ प्रीतिचालनयोः] न खुल सके, बन्द-का-बन्द ही रह जाए। (व्यात्तम्) = खुला हुआ मुख (न संयतम्) = बन्द न हो पाये। इसप्रकार उसका डसना सम्भव ही न हो। २. (अस्मिन् क्षेत्रे) = इस संसाररूप क्षेत्र में (द्वौ अही) = दो हिंसक हैं, (स्त्री च पुमान् च) = एक स्त्री है, एक पुरुष। 'पुरुष ही हानिकर हों, स्त्रियों नहीं' ऐसी बात भी नहीं है, और न ही यह है कि 'स्त्रियाँ हानिकर हों पुरुष नहीं'। दोनों ही हिंसक हो सकते हैं। (तो उभौ) = वे दोनों (अरसा) = निर्बल हों-असक्त हों। ये हानि करने का सामर्थ्य ही खो बैठे।
भावार्थ -
संसार में जो भी पुरुष व स्त्री हिंसक हों, राजपुरुष उन्हें इसप्रकार दण्डित करें कि उनकी हिंसा करने की शक्ति ही न रहे।
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