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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 22
    सूक्त - गरुत्मान् देवता - तक्षकः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त

    यद॒ग्नौ सूर्ये॑ वि॒षं पृ॑थि॒व्यामोष॑धीषु॒ यत्। का॑न्दावि॒षं क॒नक्न॑कं नि॒रैत्वैतु॑ ते वि॒षम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒ग्नौ । सूर्ये॑ । वि॒षम् । पृ॒थि॒व्याम् । ओष॑धीषु । यत् । का॒न्दा॒ऽवि॒षम् । क॒नक्न॑कम् । नि॒:ऽऐतु॑ । आ । ए॒तु॒ । ते॒ । वि॒षम् ॥४.२२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदग्नौ सूर्ये विषं पृथिव्यामोषधीषु यत्। कान्दाविषं कनक्नकं निरैत्वैतु ते विषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अग्नौ । सूर्ये । विषम् । पृथिव्याम् । ओषधीषु । यत् । कान्दाऽविषम् । कनक्नकम् । नि:ऽऐतु । आ । एतु । ते । विषम् ॥४.२२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 22

    पदार्थ -

    १. (यत्) = जो (विषम्) = जल (अग्नौ) = अग्नि में है [अग्ने: आपः], (सूर्ये) = सूर्य में है [सूर्यकिरणों से बादलों का निर्माण होकर यह जल प्रास होता है ('सहस्त्रगुणमुत्स्त्रष्टुं आदत्ते हि रसं रविः )(यत) = जो पृथिव्याम्-पृथिवी में है [कूप आदि से प्राप्त होता है] जो ओषधीषु-औषधियों में रसरूप है, वह जल ऐतु-हमें सर्वथा प्राप्त हो। २. हे हिंसावृत्ते! ते-तेरा जो कान्दाविषम-[विष् व्यासौ, कन्द knot] ग्रन्थियों में जोड़ों में व्याप्त हो जानेवाला कनक्नकम्-[कन दीसौ, क्रथ हिंसायाम्] दीप्ति को नष्ट कर देनेवाला विषम्-विष है, वह निरैतु-सब प्रकार से बाहर चला जाए।

    भावार्थ -

    हम अग्नि से उत्पन्न होनेवाले-सूर्य से मेघों द्वारा प्राप्त कराये जानेवाले-पृथिवी से दिये जानेवाले व ओषधिरसों में प्राप्त होनेवाले जलों को प्राप्त करें। हिंसावृत्ति से उत्पन्न हो जानेवाले, जोड़ों में व्यास, दीसिनाशक विष को दूर करें।

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