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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 5
    सूक्त - गरुत्मान् देवता - तक्षकः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त

    पै॒द्वो ह॑न्ति कस॒र्णीलं॑ पै॒द्वः श्वि॒त्रमु॒तासि॒तम्। पै॒द्वो र॑थ॒र्व्याः शिरः॒ सं बि॑भेद पृदा॒क्वाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पै॒द्व: । ह॒न्ति॒ । क॒स॒र्णील॑म् । पै॒द्व: । श्वि॒त्रम् । उ॒त । अ॒सि॒तम् । पै॒द्व: । र॒थ॒र्व्या: । शिर॑: । सम् । बि॒भे॒द॒ । पृ॒दा॒क्वा: ॥४.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पैद्वो हन्ति कसर्णीलं पैद्वः श्वित्रमुतासितम्। पैद्वो रथर्व्याः शिरः सं बिभेद पृदाक्वाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पैद्व: । हन्ति । कसर्णीलम् । पैद्व: । श्वित्रम् । उत । असितम् । पैद्व: । रथर्व्या: । शिर: । सम् । बिभेद । पृदाक्वा: ॥४.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १.(पैदः) = [पद गती, पैदः-अश्व:-नि०१।१४ कर्मव्याप्त] कर्मशील-गतिशील पुरुष (कसर्णीलम्) = [कस् to destroy, नील-निधि] विनाशक धन को, अन्याय व छलादि से उपार्जित धन को (हन्ति) = नष्ट करता है। यह क्रियाशील बनता हुआ अन्याय्य धन को कभी उपार्जित करने का विचार नहीं करता। (पैद्वः) = यह क्रियाशील पुरुष (श्वित्रम्) = कुष्ठादि रोगों को नष्ट करता है (उत्) = और (असितम्) = कृष्ण [मलिन] कर्मों को भी विनष्ट करता है-न यह रोगों का शिकार होता है, न ही पापों का। २. यह (पैद्वः) = गतिशील पुरुष (रथर्व्या:) = इस गतिशील [रथयतिर्गतिकर्मा नि० २।१४] (पृदाक्वा:) = [पृ, दा, कु] पालन के लिए अन्न देनेवाली पृथिवी के (शिर:) = सिर को-पृष्ठ को (संबिभेद) = विदीर्ण करता है। कृषि द्वारा इसके पृष्ठ को भिन्न करनेवाला होता है। वेद के ('अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित् कृषस्व') = इस उपदेश के अनुसार यह कृषि करनेवाला होता है।

    भावार्थ -

    हम गतिशील बनकर कृषि आदि कार्यों से-उत्तम कार्यों से उत्तम अन्नों को प्राप्त करें। रोगों व पापों से बचें तथा अन्यायोपार्जित विनाशक धनों के संग्रह से दूर रहें।

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