अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 4/ मन्त्र 18
सूक्त - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्पविषदूरीकरण सूक्त
इन्द्रो॑ जघान प्रथ॒मं ज॑नि॒तार॑महे॒ तव॑। तेषा॑मु तृ॒ह्यमा॑णानां॒ कः स्वि॒त्तेषा॑मस॒द्रसः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । ज॒घा॒न॒ । प्र॒थ॒मम् । ज॒नि॒तार॑म् । अ॒हे॒ । तव॑ । तेषा॑म् । ऊं॒ इति॑ । तृ॒ह्यमा॑णानाम् । क: । स्वि॒त् । तेषा॑म् । अ॒स॒त् । रस॑: ॥४.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो जघान प्रथमं जनितारमहे तव। तेषामु तृह्यमाणानां कः स्वित्तेषामसद्रसः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । जघान । प्रथमम् । जनितारम् । अहे । तव । तेषाम् । ऊं इति । तृह्यमाणानाम् । क: । स्वित् । तेषाम् । असत् । रस: ॥४.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 4; मन्त्र » 18
विषय - 'अहि के जनिता' का विनाश
पदार्थ -
१. है (अहे) = विहिंसन की वृत्ति! (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (तव) = तेरे (जनितारम्) = उत्पन्न करनेवाले भाव को ही (प्रथमं जघान) = सबसे पहले नष्ट कर डालता है। जिन 'काम, क्रोध, लोभ' के कारण यह हिंसनवृत्ति उत्पन्न होती है, उन कामादि को ही यह जितेन्द्रिय पुरुष नष्ट कर देता है। २. (उ) = निश्चय से (तुह्यमाणानाम्) = नष्ट किये जाते हुए (तेषां तेषाम्) = उन-उन काम-क्रोधादि भावों का (स्वित्) = भला (कः रस: असत्) = क्या रस अवशिष्ट हो सकता है? जब मनुष्य काम-क्रोधादि के नाश के प्रयन में लगता है तब इन हिंसन वृत्तियों का स्वयं ही नाश हो जाता है।
भावार्थ -
हम हिंसन वृत्तियों के मूलभूत काम, क्रोध, लोभादि को समाप्त करने का प्रयत्न करें। इन्हें नष्ट करके हम हिंसन-वृत्तियों से दूर हों।
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