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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 9/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - शतौदना (गौः) छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शतौदनागौ सूक्त

    वेदि॑ष्टे॒ चर्म॑ भवतु ब॒र्हिर्लोमा॑नि॒ यानि॑ ते। ए॒षा त्वा॑ रश॒नाग्र॑भी॒द्ग्रावा॑ त्वै॒षोऽधि॑ नृत्यतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वेदि॑: । ते॒ । चर्म॑ । भ॒व॒तु॒ । ब॒र्हि: । लोमा॑नि । यानि॑ । ते॒ । ए॒षा । त्वा॒ । र॒श॒ना । अ॒ग्र॒भी॒त् । ग्रावा॑ । त्वा॒ । ए॒ष: । अधि॑ । नृ॒त्य॒तु॒ ॥९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वेदिष्टे चर्म भवतु बर्हिर्लोमानि यानि ते। एषा त्वा रशनाग्रभीद्ग्रावा त्वैषोऽधि नृत्यतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वेदि: । ते । चर्म । भवतु । बर्हि: । लोमानि । यानि । ते । एषा । त्वा । रशना । अग्रभीत् । ग्रावा । त्वा । एष: । अधि । नृत्यतु ॥९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 9; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. वेदवाणी को धेनु के रूप में चित्रित करते हुए कहते हैं कि (ते चर्म) = तेरा चर्म (वेदिः भवतु) = यज्ञ की वेदि बने। (यानि ते लोमानि) = जो तेरे लोम हैं, वे (बर्हिः) = कुशासन हैं। (एषा) = यह जो (रशनाम्) = रज्जु (त्वा अग्रभीत्) = तुझे ग्रहण करती है-बौंधती है, यह (ग्रावा) = स्तत्रों का उच्चारण करनेवाला स्तोता है। (एष:) = यह स्तोता (त्वा अधिनृत्यतु) = तुझपर नृत्य करनेवाला हो। वेदाध्ययन ही इसका यज्ञ है-इस यज्ञ में वह आनन्द लेनेवाला हो। २. हे (अघ्न्ये) = अहन्तव्ये वेदधेनो! (ते बाला:) = तेरे बाल (प्रोक्षणी: सन्त) = यज्ञवेदि के शोधन-जल हों। जिला-तेरी जिला (संमार्ष्टं) = सम्यक शोधन करनेवाली हो। हे (शतौदने) = शतवर्षपर्यन्त हमारे जीवन को सुखों से सींचनेवाली वेदवाणि! (त्वम्) = तू (शुद्धा) = शुद्धव (यज्ञिया भूत्वा) = यज्ञ के योग्य व यज्ञशीला होकर (दिवं प्रेहि) = प्रकाशमय स्वर्गलोक को पास कर । वेदाध्ययन करनेवाला पुरुष अपने जीवन को शुद्ध व यज्ञशील बनाकर स्वर्ग को प्राप्त करता है।

    भावार्थ -

    वेदाध्ययन को यज्ञ ही समझना चाहिए। इसमें कभी विच्छेद न करते हुए हम अपने जीवनों को शुद्ध व यज्ञिय बनाकर अपने घरों को स्वर्गोपम बनाने में समर्थ हों।

     

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