अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 9/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वा
देवता - शतौदना (गौः)
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शतौदनागौ सूक्त
स स्व॒र्गमा रो॑हति॒ यत्रा॒दस्त्रि॑दि॒वं दि॒वः। अ॑पू॒पना॑भिं कृ॒त्वा यो ददा॑ति श॒तौद॑नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । स्व॒:ऽगम् । आ । रो॒ह॒ति॒ । यत्र॑ । अ॒द: । त्रि॒ऽदि॒वम् । दि॒व: । अ॒पू॒पऽना॑भिम् । कृ॒त्वा । य: । ददा॑ति । श॒तऽओ॑दनाम् ॥९.५॥
स्वर रहित मन्त्र
स स्वर्गमा रोहति यत्रादस्त्रिदिवं दिवः। अपूपनाभिं कृत्वा यो ददाति शतौदनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । स्व:ऽगम् । आ । रोहति । यत्र । अद: । त्रिऽदिवम् । दिव: । अपूपऽनाभिम् । कृत्वा । य: । ददाति । शतऽओदनाम् ॥९.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 9; मन्त्र » 5
विषय - अपूपनाभिं कृत्वा
पदार्थ -
१. (यः) = जो (अपूपनाभिं कृत्वा) = [इन्द्रियम् अपूपः-ऐ०२।१४, णह बन्धने] इन्द्रियों को बाँधकर [देशबन्ध: चित्तस्य धारणा]-इन्द्रियों व मन को हृदयदेश में बाँधकर-(शतौदनाम्) = इस शतवर्षपर्यन्त आनन्दसिक्त करनेवाली वेदवाणी को (ददाति) = औरों के लिए प्राप्त कराता है, अर्थात् जो स्वाध्याय-प्रवचन को ही अपना ध्येय बना लेता है, (स:) = वह उस (स्वर्गं आरोहति) = स्वर्ग में आरोहण करता है, (यत्र) = जहाँ कि (दिवः) = ज्ञान की ज्योति से (अदः त्रिदिवम्) = वे 'शरीर, हृदय व मस्तिष्क' [पृथिवी, अन्तरिक्ष व धुलोक] तीनों ही प्रकाशमय-तेजोदीस-हैं।
भावार्थ -
'स्वाध्याय और प्रवचन'-मनुष्यों को सब प्रकार की आसक्तियों से ऊपर उठाकर इन्हें 'तेजस्वी शरीर, पवित्र हृदय व दीत मस्तिष्क' वाला बनाता है, अतः हमें जितेन्द्रिय बनकर स्वाध्याय-प्रवचन को ही अपना मुख्य कार्य बनाना चाहिए।
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