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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 9/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - शतौदना (गौः) छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शतौदनागौ सूक्त

    बाला॑स्ते॒ प्रोक्ष॑णीः सन्तु जि॒ह्वा सं मा॑र्ष्ट्वघ्न्ये। शु॒द्धा त्वं य॒ज्ञिया॑ भू॒त्वा दिवं॒ प्रेहि॑ शतौदने ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बाला॑: । ते॒ । प्र॒ऽउक्ष॑णी: । स॒न्तु॒ । जि॒ह्वा । सम् । मा॒र्ष्टु॒ । अ॒घ्न्ये॒ । शु॒ध्दा । त्वम् । य॒ज्ञिया॑ । भू॒त्वा । दिव॑म् । प्र । इ॒हि॒ । श॒त॒ऽओ॒द॒ने॒ ॥९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बालास्ते प्रोक्षणीः सन्तु जिह्वा सं मार्ष्ट्वघ्न्ये। शुद्धा त्वं यज्ञिया भूत्वा दिवं प्रेहि शतौदने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बाला: । ते । प्रऽउक्षणी: । सन्तु । जिह्वा । सम् । मार्ष्टु । अघ्न्ये । शुध्दा । त्वम् । यज्ञिया । भूत्वा । दिवम् । प्र । इहि । शतऽओदने ॥९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 9; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. वेदवाणी को धेनु के रूप में चित्रित करते हुए कहते हैं कि (ते चर्म) = तेरा चर्म (वेदिः भवतु) = यज्ञ की वेदि बने। (यानि ते लोमानि) = जो तेरे लोम हैं, वे (बर्हिः) = कुशासन हैं। (एषा) = यह जो (रशनाम्) = रज्जु (त्वा अग्रभीत्) = तुझे ग्रहण करती है-बौंधती है, यह (ग्रावा) = स्तत्रों का उच्चारण करनेवाला स्तोता है। (एष:) = यह स्तोता (त्वा अधिनृत्यतु) = तुझपर नृत्य करनेवाला हो। वेदाध्ययन ही इसका यज्ञ है-इस यज्ञ में वह आनन्द लेनेवाला हो। २. हे (अघ्न्ये) = अहन्तव्ये वेदधेनो! (ते बाला:) = तेरे बाल (प्रोक्षणी: सन्त) = यज्ञवेदि के शोधन-जल हों। जिला-तेरी जिला (संमार्ष्टं) = सम्यक शोधन करनेवाली हो। हे (शतौदने) = शतवर्षपर्यन्त हमारे जीवन को सुखों से सींचनेवाली वेदवाणि! (त्वम्) = तू (शुद्धा) = शुद्धव (यज्ञिया भूत्वा) = यज्ञ के योग्य व यज्ञशीला होकर (दिवं प्रेहि) = प्रकाशमय स्वर्गलोक को पास कर । वेदाध्ययन करनेवाला पुरुष अपने जीवन को शुद्ध व यज्ञशील बनाकर स्वर्ग को प्राप्त करता है।

    भावार्थ -

    वेदाध्ययन को यज्ञ ही समझना चाहिए। इसमें कभी विच्छेद न करते हुए हम अपने जीवनों को शुद्ध व यज्ञिय बनाकर अपने घरों को स्वर्गोपम बनाने में समर्थ हों।

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