अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 9/ मन्त्र 4
सूक्त - अथर्वा
देवता - शतौदना (गौः)
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शतौदनागौ सूक्त
यः श॒तौद॑नां॒ पच॑ति काम॒प्रेण॒ स क॑ल्पते। प्री॒ता ह्यस्य ऋ॒त्विजः॒ सर्वे॒ यन्ति॑ यथाय॒थम् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । श॒तऽओ॑दनाम् । पच॑ति । का॒म॒ऽप्रेण॑ । स: । क॒ल्प॒ते॒ । प्री॒ता: । हि । अ॒स्य॒ । ऋ॒त्विज॑: । सर्वे॑ । यन्ति॑ । य॒था॒ऽय॒थम् ॥९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यः शतौदनां पचति कामप्रेण स कल्पते। प्रीता ह्यस्य ऋत्विजः सर्वे यन्ति यथायथम् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । शतऽओदनाम् । पचति । कामऽप्रेण । स: । कल्पते । प्रीता: । हि । अस्य । ऋत्विज: । सर्वे । यन्ति । यथाऽयथम् ॥९.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 9; मन्त्र » 4
विषय - कामप्रेण स कल्पते
पदार्थ -
१. (य:) = जो (शतौदनाम्) = शतवर्षपर्यन्त जीवन को सुखों से सिक्त करनेवाली वेदवाणी को (पचति) = परिपक्व करता है, अर्थात् वेदवाणी से अपने ज्ञान को परिपक्व करता है, तो (स:) = वह कामप्रेण-[प्रा पूरणे] कामनाओं को पूर्ण करनेवाले व्यवहार से (कल्पते) = समर्थ होता है। ज्ञान के परिपाक से इसके कार्यों में इसे सफलता प्राप्त होती है। २. (अस्य) = इस परिपक्व ज्ञानवाले व्यक्ति के (प्रति हि) = निश्चय से (ऋत्विज:) = सब यज्ञ करनेवाले ऋत्विज् (प्रीता:) = प्रसन्न व प्रीतिवाले होते हैं। इसे (सर्वे) = सब ऋत्विज् (यथायथम्) = ठीक-ठाक यन्ति प्राप्त होते हैं। यह ऋत्विजों का प्रिय व प्राप्य होता है।
भावार्थ -
जो इस शतीदना [शतवर्षपर्यन्त जीवन को आनन्दसिक्त करनेवाली] वेदवाणी का अपने में पचन करता है, वह सफल मनोरथ होता है और यज्ञशील पुरुषों के साथ उसका मेल होता है।