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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 9/ मन्त्र 7
    सूक्त - अथर्वा देवता - शतौदना (गौः) छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शतौदनागौ सूक्त

    ये ते॑ देवि शमि॒तारः॑ प॒क्तारो॒ ये च॑ ते॒ जनाः॑। ते त्वा॒ सर्वे॑ गोप्स्यन्ति॒ मैभ्यो॑ भैषीः शतौदने ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । ते॒ । दे॒वि॒ । श॒मि॒तार॑: । प॒क्तार॑: । ये । च॒ । ते॒ । जना॑: । ते । त्वा॒ । सर्वे॑ । गो॒प्स्य॒न्ति॒ । मा । ए॒भ्य॒: । भै॒षी॒: । श॒त॒ऽओ॒द॒ने॒ ॥९.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये ते देवि शमितारः पक्तारो ये च ते जनाः। ते त्वा सर्वे गोप्स्यन्ति मैभ्यो भैषीः शतौदने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । ते । देवि । शमितार: । पक्तार: । ये । च । ते । जना: । ते । त्वा । सर्वे । गोप्स्यन्ति । मा । एभ्य: । भैषी: । शतऽओदने ॥९.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 9; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    १. हे (देवि) = प्रकाशमयी शतीदने वेदवाणि! (ये ते शमितार:) = [शम् आलोचने] जो नियमपूर्वक तेरा आलोचन करनेवाले-ज्ञान प्राप्त करनेवाले पुरुष हैं, (च) = और (ये जना:) = जो मनुष्य (ते पक्तार:) = अपने में तेरा परिपाक करनेवाले आचार्य [भृगु] हैं, (ते सर्वे) = वे सब शिष्य और आचार्य (त्वा) = तेरा (गोप्स्यन्ति) = रक्षण करेंगे। हे (शतौदने) = शतवर्षपर्यन्त जीवन को आनन्दसिक्त करनेवाली वेदवाणि! तू (एभ्यः मा भैषी:) = इनसे भयभीत न हो। इनके होते हुए तेरे विनाश [विलोप] का किसी प्रकार भी भय नहीं।

    भावार्थ -

    जब आचार्यकुल में रहते हुए विद्यार्थी, परिपक्व ज्ञानवाले आचार्यों से इस वेदज्ञान का ग्रहण करते हुए इसका आलोचन करते हैं तब इस वेदज्ञान के शमन [आलोचन] व पचन से इसके विलोप का भय नहीं होता।

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