अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 7/ मन्त्र 16
सूक्त - अथर्वा
देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त
पि॒ता ज॑नि॒तुरुच्छि॒ष्टोऽसोः॒ पौत्रः॑ पिताम॒हः। स क्षि॑यति॒ विश्व॒स्येशा॑नो॒ वृषा॒ भूम्या॑मति॒घ्न्यः ॥
स्वर सहित पद पाठपि॒ता । ज॒नि॒तु: । उत्ऽशि॑ष्ट: । असो॑: । पौत्र॑: । पि॒ता॒म॒ह: । स: । क्षि॒य॒ति॒ । विश्व॑स्य । ईशा॑न: । वृषा॑ । भूम्या॑म् । अ॒ति॒ऽघ्न्य᳡: ॥९.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
पिता जनितुरुच्छिष्टोऽसोः पौत्रः पितामहः। स क्षियति विश्वस्येशानो वृषा भूम्यामतिघ्न्यः ॥
स्वर रहित पद पाठपिता । जनितु: । उत्ऽशिष्ट: । असो: । पौत्र: । पितामह: । स: । क्षियति । विश्वस्य । ईशान: । वृषा । भूम्याम् । अतिऽघ्न्य: ॥९.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 16
विषय - असोः 'पौत्र:-पितामह'
पदार्थ -
१. (उच्छिष्ट:) = वह उच्छिष्यमाण प्रभु (जनितुः पिता) = जनकों का भी जनक [रक्षक] है। वह (पितामहः) = जनकों का भी जनक प्रभु (असो:) = प्राण का (पौत्रम्) = [पौत्रम् अस्य अस्ति इति] पोतृकर्म करनेवाला-पवित्रता का सम्पादक है। हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाले वे प्रभु ही हैं। २. (स:) = वह (विश्वस्य ईशान:) = इस सम्पूर्ण संसार के ऐश्वर्यवाले प्रभु वृषा-सब सुखों का सेचन करनेवाले हैं। अतिध्य-हनन से ऊपर उठे हुए-अहननीय होते हुए वे प्रभुभूम्याम् क्षियति-इस पृथिवी पर निवास करते हैं-सब प्राणिशरीरों में वे प्रभु स्थित हो रहे हैं [अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर। -गीता ८।४]।
भावार्थ -
प्रभु जनकों के जनक हैं। ये पितामाह प्रभु प्राणों को पवित्र करनेवाले हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के ईशान वे प्रभु सब सुखों के दाता हैं। अहननीय होते हुए वे सब प्राणिशरीरों में निवास कर रहे हैं।
सूचना -
यहाँ 'पौत्रः पितामहः' शब्दों में विरोधाभास अलंकार द्रष्टव्य है।
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