अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 7/ मन्त्र 22
सूक्त - अथर्वा
देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम्
छन्दः - विराट्पथ्याबृहती
सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त
राद्धिः॒ प्राप्तिः॒ समा॑प्ति॒र्व्याप्ति॒र्मह॑ एध॒तुः। अत्या॑प्ति॒रुच्छि॑ष्टे॒ भूति॒श्चाहि॑ता॒ निहि॑ता हि॒ता ॥
स्वर सहित पद पाठराध्दि॑: । प्रऽआ॑प्ति: । सम्ऽआ॑प्ति: । विऽआ॑प्ति: । मह॑: । ए॒ध॒तु: । अति॑ऽआप्ति: । उत्ऽशि॑ष्टे । भूति॑: । च॒ । आऽहि॑ता । निऽहि॑ता । हि॒ता ॥९.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
राद्धिः प्राप्तिः समाप्तिर्व्याप्तिर्मह एधतुः। अत्याप्तिरुच्छिष्टे भूतिश्चाहिता निहिता हिता ॥
स्वर रहित पद पाठराध्दि: । प्रऽआप्ति: । सम्ऽआप्ति: । विऽआप्ति: । मह: । एधतु: । अतिऽआप्ति: । उत्ऽशिष्टे । भूति: । च । आऽहिता । निऽहिता । हिता ॥९.२२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 22
विषय - प्राप्ति, समाति, व्याति
पदार्थ -
१. (राद्धिः) = फल की सिद्धि, (प्राति:) = प्रेप्सित फल की प्राप्ति, (समाप्ति:) = कर्म की पूर्णता, (व्याप्ति:) = नाना मनोरथों के अनुरूप फलों की प्राप्ति, (मह:) = तेज, (एधतु:) = वृद्धि, (अत्यासि:) = आशातीत प्राप्ति, (भूति:) = समृद्धि जोकि (आहिता) = चारों ओर सूर्य आदि देवों में स्थापित है, अथवा जो (निहिता) = पर्वतकन्दराओं व भूगर्भ में सुरक्षित रक्खी है-वह सब (उच्छिष्टे हिता) = उच्छिष्यमाण प्रभु में स्थापित है।
भावार्थ -
सब 'सिद्धि प्राप्ति, वृद्धि व भूति' के आधार प्रभु ही हैं।
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