अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 7/ मन्त्र 14
सूक्त - अथर्वा
देवता - उच्छिष्टः, अध्यात्मम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - उच्छिष्ट ब्रह्म सूक्त
नव॒ भूमीः॑ समु॒द्रा उच्छि॑ष्टेऽधि॑ श्रि॒ता दिवः॑। आ॒ सूर्यो॑ भा॒त्युच्छि॑ष्टेऽहोरा॒त्रे अपि॒ तन्मयि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनव॑ । भूमी॑: । स॒मु॒द्रा: । उत्ऽशि॑ष्टे । अधि॑ । श्रि॒ता: । दिव॑: । आ । सूर्य॑: । भा॒ति॒ । उत्ऽशि॑ष्टे । अ॒हो॒रा॒त्रे इति॑ । अपि॑ । तत् । मयि॑ ॥९.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
नव भूमीः समुद्रा उच्छिष्टेऽधि श्रिता दिवः। आ सूर्यो भात्युच्छिष्टेऽहोरात्रे अपि तन्मयि ॥
स्वर रहित पद पाठनव । भूमी: । समुद्रा: । उत्ऽशिष्टे । अधि । श्रिता: । दिव: । आ । सूर्य: । भाति । उत्ऽशिष्टे । अहोरात्रे इति । अपि । तत् । मयि ॥९.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 7; मन्त्र » 14
विषय - भूमी:-समुद्रा:-दिवः
पदार्थ -
१. (नव भूमी:) = नौ खण्डोंवाले ये पृथिवीलोक अथवा स्तुति के योग्य ये पृथिवीलोक, (समुद्रा:) = अन्तरिक्षस्थ लोक तथा (दिव:) = उपरितन धुलोक (उच्छिष्टे अधिश्रिता:) = उच्छिष्यमाण प्रभु में आश्रित हैं। यह (सूर्य:) = सूर्य तथा (अहोरात्रे अपि) = दिन-रात भी (उच्छिष्टे) = उस उच्छिष्ट प्रभु में ही (आभाति) = चमक रहे हैं। (तत्) = वह प्रभु (मयि) = मुझमें भी दीप्त हो-मैं भी प्रभु के प्रकाश से प्रकाशवाला बनें।
भावार्थ -
पृथिवी, अन्तरिक्ष व धुलोक सभी प्रभु में आश्रित हैं। सूर्य व दिन-रात प्रभु में ही दीप्त होते हैं। प्रभु के आधार में मैं भी दीप्तिबाला बनूं।
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