अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 3/ मन्त्र 9
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - चतुरवसाना सप्तपदा भुरिगतिधृतिः
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
कृ॒ष्णं नि॒यानं॒ हर॑यः सुप॒र्णा अ॒पो वसा॑ना॒ दिव॒मुत्प॑तन्ति। त आव॑वृत्र॒न्त्सद॑नादृ॒तस्य॑। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒ष्णम् । नि॒ऽयान॑म् । हर॑य: । सु॒ऽप॒र्णा: । अ॒प: । वसा॑ना: । दिव॑म् । उत् । प॒त॒न्ति॒ । ते । आ । अ॒व॒वृ॒त्र॒न् । सद॑नात् । ऋ॒तस्य॑। तस्य॑ । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्षि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न् ॥३.९॥
स्वर रहित मन्त्र
कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति। त आववृत्रन्त्सदनादृतस्य। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥
स्वर रहित पद पाठकृष्णम् । निऽयानम् । हरय: । सुऽपर्णा: । अप: । वसाना: । दिवम् । उत् । पतन्ति । ते । आ । अववृत्रन् । सदनात् । ऋतस्य। तस्य । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्षिणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान् ॥३.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 3; मन्त्र » 9
विषय - द्युलोक की ओर जाना व फिर वहाँ से लौटना
पदार्थ -
१. (हरयः) = जल का वाष्पीभवन द्वारा हरण करनेवाली, (सुपर्णा:) = सम्यक् पालन व पोषण करनेवाली (अप: वसाना:) = जल को धारण करनेवाली सूर्य की किरणें (कृष्णं नियानम्) = कृष्ण वर्ण या नील वर्णवाले सबके स्थानरूप (दिवं उत पतन्ति) = द्युलोक की ओर गतिवाली होती हैं। सूर्य की किरणों के द्वारा जल का वाष्पीभवन होता है। इन बाष्पीभूत जलों को लेकर सूर्य की किरणे मानो फिर आकाश की ओर गतिवाली होती हैं। २. (ते) = वे सूर्य की किरणें (ऋतस्य सदनात्) = इस ऋत [rain-water] के सदन से-वृष्टिजल के घररूप अन्तरिक्षलोक से (आववृत्रन्) = फिर यहाँ लौटनेवाली बनती हैं। सूर्य की किरणरूप हाथों द्वारा जलवाष्पों को ऊपर ले-जाता है, सूर्य के ये किरणरूप हाथ जलों को लेने के लिए फिर इस पृथिवीलोक की ओर आवृत होते हैं। प्रभु की यह क्या विचित्र रचना है? इस रचना में प्रभु की महिमा को देखनेवाले ब्रह्मज्ञानी की हत्या करना पाप है।
भावार्थ -
सूर्य की किरणें जलों को लेकर ऊपर अन्तरिक्ष में जाती हैं। वहाँ के जलकणों को स्थापित करके पुन: जलकणों को लेने के लिए यहाँ लौटती हैं। इस प्रक्रिया में प्रभु की महिमा को देखनेवाले ब्रह्मज्ञानी का आदर करना हमारा कर्तव्य है। उसकी हिंसा करना महान् पाप है। [मुक्तात्मा भी झुलोक की ओर जाता है और परान्तकाल के पश्चात् फिर वहाँ से यहाँ लौटता है]।
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