अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 3/ मन्त्र 24
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - चतुरवसाना सप्तपदा कृतिः
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
य आ॑त्म॒दा ब॑ल॒दा यस्य॒ विश्व॑ उ॒पास॑ते प्र॒शिषं॒ यस्य॑ दे॒वाः। यो॒स्येशे॑ द्वि॒पदो॒ यश्चतु॑ष्पदः। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठय:। आ॒त्म॒ऽदा: । ब॒ल॒ऽदा: । यस्य॑ । विश्वे॑ । उ॒प॒ऽआस॑ते । प्र॒ऽशिष॑म् । यस्य॑ । दे॒वा: । य: । अ॒स्य । ईशे॑ । द्वि॒ऽपद॑: । य: । चतु॑:ऽपद: । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्षि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न् ॥३.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः। योस्येशे द्विपदो यश्चतुष्पदः। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥
स्वर रहित पद पाठय:। आत्मऽदा: । बलऽदा: । यस्य । विश्वे । उपऽआसते । प्रऽशिषम् । यस्य । देवा: । य: । अस्य । ईशे । द्विऽपद: । य: । चतु:ऽपद: । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्षिणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान् ॥३.२४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 3; मन्त्र » 24
विषय - आत्मदा: बलदाः
पदार्थ -
१. (यः आत्मदा:) = जो जीवहित के लिए अपने को दे डालनेवाले हैं, जो निरन्तर जीवहित के लिए सृष्टि-निर्माण, धारण व प्रलय आदि कर्मों में प्रवृत्त हैं। [यः](बलदा:) = जो सब प्रकार की आवश्यक शक्तियों को प्राप्त करानेवाले हैं। (यस्य) = जिस प्रभु का (विश्वे) = सब लोग (उपासते) = उपासन करते हैं। (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (यस्य प्रशिषम्) = जिसकी आज्ञा का उपासन करते हैं, अर्थात् जिसकी आज्ञाओं के अनुसार कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। (यः) = जो प्रभु (अस्य) = इस (द्विपदः) = दो पाँववाले मनुष्यों के तथा य:-जो चतुष्पद:-चार पाँववाले इन गवादि पशुओं के इशे-ईश हैं, अर्थात् इनमें उस-उस ऐश्वर्य को स्थापित करनेवाले हैं। मनुष्यों में बुद्धि, तेज व बल को व अद्भुत शक्तियों को स्थापित करनेवाले वे प्रभु ही हैं। तस्य-उस प्रभु के प्रति यह महान् अपराध है कि इसप्रकार के ब्रह्मज्ञानी की हत्या की जाए। शेष पूर्ववत्।
भावार्थ -
प्रभु अपने को जीवहित के लिए दिये हुए हैं। वे हमें बल प्राप्त कराते हैं। सब प्रभु का उपासन करते हैं। देव प्रभु के शासन में चलते हैं। मनुष्यों में व पशुओं में जो भी ऐश्वर्य है वह सब उस प्रभु का है। इस प्रभु के ज्ञाता का हनन प्रभु के प्रति महान् पाप है।
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