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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 24
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - चतुरवसाना सप्तपदा कृतिः सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    52

    य आ॑त्म॒दा ब॑ल॒दा यस्य॒ विश्व॑ उ॒पास॑ते प्र॒शिषं॒ यस्य॑ दे॒वाः। यो॒स्येशे॑ द्वि॒पदो॒ यश्चतु॑ष्पदः। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य:। आ॒त्म॒ऽदा: । ब॒ल॒ऽदा: । यस्य॑ । विश्वे॑ । उ॒प॒ऽआस॑ते । प्र॒ऽशिष॑म् । यस्य॑ । दे॒वा: । य: । अ॒स्य । ईशे॑ । द्वि॒ऽपद॑: । य: । चतु॑:ऽपद: । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्ष‍ि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न् ॥३.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः। योस्येशे द्विपदो यश्चतुष्पदः। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य:। आत्मऽदा: । बलऽदा: । यस्य । विश्वे । उपऽआसते । प्रऽशिषम् । यस्य । देवा: । य: । अस्य । ईशे । द्विऽपद: । य: । चतु:ऽपद: । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्ष‍िणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान् ॥३.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 3; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो [परमेश्वर] (आत्मदाः) प्राणदाता और (बलदाः) बलदाता है, (यस्य यस्य) जिसके ही (प्रशिषम्) उत्तम शासन को (विश्वे) सब (देवाः) गतिमान् सूर्य चन्द्र आदि लोक (उपासते) मानते हैं। (यः) जो (अस्य) इस (द्विपदः) दो पाये [समूह] का और (यः) जो (चतुष्पदः) चौपाये [समूह] का (ईशे=ईष्टे) ईश्वर है। (तस्य) उस (क्रुद्धस्य) क्रुद्ध (देवस्य) प्रकाशमान [ईश्वर] के लिये.... [मन्त्र १] ॥२४॥

    भावार्थ

    जिस जगदीश्वर के शासन से सब सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि लोक परस्पर धारण आकर्षण द्वारा अपने अपने मार्ग पर चलते हैं, और मनुष्य गौ आदि सब प्राणी मर्यादा में रहते हैं, उस परमात्मा की भक्ति से मनुष्य आत्मबल बढ़ावें ॥२४॥आवृत्ति छोड़ कर यह मन्त्र आ चुका है। अ० ४।२।१। और कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१२१।२, ३। और यजु० २५।१३, ११ ॥

    टिप्पणी

    २४-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ४।२।१। (यः) परमेश्वरः (आत्मदाः) प्राणदाता (बलदाः) बलदाता (यस्य) (विश्वे) सर्वे (उपासते) सेवन्ते (प्रशिषम्) अनुशासनम् (यस्य) (देवाः) गतिमन्तः सूर्यादिलोकाः (यः) (अस्य) (ईशे) तलोपः। ईष्टे। ईश्वरो भवति (द्विपदः) पादद्वयोपेतस्य (यः) (चतुष्पदः) पादचतुष्टययुक्तस्य ॥

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    विषय

    आत्मदा: बलदाः

    पदार्थ

    १. (यः आत्मदा:) = जो जीवहित के लिए अपने को दे डालनेवाले हैं, जो निरन्तर जीवहित के लिए सृष्टि-निर्माण, धारण व प्रलय आदि कर्मों में प्रवृत्त हैं। [यः](बलदा:) = जो सब प्रकार की आवश्यक शक्तियों को प्राप्त करानेवाले हैं। (यस्य) = जिस प्रभु का (विश्वे) = सब लोग (उपासते) = उपासन करते हैं। (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (यस्य प्रशिषम्) = जिसकी आज्ञा का उपासन करते हैं, अर्थात् जिसकी आज्ञाओं के अनुसार कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। (यः) = जो प्रभु (अस्य) = इस (द्विपदः) = दो पाँववाले मनुष्यों के तथा य:-जो चतुष्पद:-चार पाँववाले इन गवादि पशुओं के इशे-ईश हैं, अर्थात् इनमें उस-उस ऐश्वर्य को स्थापित करनेवाले हैं। मनुष्यों में बुद्धि, तेज व बल को व अद्भुत शक्तियों को स्थापित करनेवाले वे प्रभु ही हैं। तस्य-उस प्रभु के प्रति यह महान् अपराध है कि इसप्रकार के ब्रह्मज्ञानी की हत्या की जाए। शेष पूर्ववत्।

    भावार्थ

    प्रभु अपने को जीवहित के लिए दिये हुए हैं। वे हमें बल प्राप्त कराते हैं। सब प्रभु का उपासन करते हैं। देव प्रभु के शासन में चलते हैं। मनुष्यों में व पशुओं में जो भी ऐश्वर्य है वह सब उस प्रभु का है। इस प्रभु के ज्ञाता का हनन प्रभु के प्रति महान् पाप है।

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    भाषार्थ

    (यः) जो परमेश्वर (आत्मदाः) आत्मा का दाता, (बलदाः) और बलों का दाता है. (विश्वे) सब (यस्य) जिसके (प्रशिषम्) उत्तम-शासन की (उपासते) उपासना करते हैं, (देवाः) देव (यस्य) जिस के प्रशासन की उपासना करते हैं, या देव जिस के अधीन है। (यः) जो (अस्य द्विपदः) इस दोपाय-जगत् का, और (यः) जो इस (चतुष्पदः) चौपाए जगत् का (ईशे) अधीश्वर है, (तस्य देवस्य......पाशान्) पूर्ववत् (मन्त्र १)

    टिप्पणी

    [आत्मदाः = शरीरों में आत्माओं का देने वाला। प्रार्थी जीवन को जेल न समझता हुआ, जीवन को उन्नति और मोक्ष का साधन जानकर परमेश्वर की स्तुति "आत्मदाः" पद द्वारा करता है। बलदाः = शारीरिक ऐन्द्रियिक, मानसिक तथा आत्मिक बलों का दाता। उपासते= सच्चे उपासक जैसे परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार चलते है, बैसे सब जड़ जगत् परमेश्वर के उत्तम-शासन के अनुसार चल रहा है]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    To the Sun, against Evil Doer

    Meaning

    He that is the giver of life to the soul and the power and potential the soul needs on earth, whose glory all people and all worlds in existence worship and all divinities celebrate, who rules the life of all living beings, humans, animals and all others, to that lord of glory, that person is an offensive sinner who violates the Brahmana, the man who knows Brahma in truth. O Rohita, Ruler on high, shake up that person, punish him down to naught, extend the arms of law, justice and correction to the Brahmana-violator.

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    Translation

    He who is self-giving, strength-giving, of whom all, of whom (even) the gods wait upon the direction, who is master of these bipeds, who of quadrupeds -- to that wrathful (enraged) Lord it is offending that some one scathes such a learned intellectual person. O ascending one, make him tremble; destroy him; put your snares upon the harasser of intellectual persons.

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    Translation

    He who… who is the giver of physical vigor and spiritual impetus,who is worshiped by all, whose governance and order is carried out by all,luminous bodies and enlightened persons,who govern the bipeds and quadrupeds of this world.

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    Translation

    God is the giver of spiritual force, and physical strength. His command-ments all the learned persons acknowledge. He is the Lord of men and cattle. This God is wroth offended by the sinner who vexes the Brahman who hath gained this knowledge. Terrify him, O King, destroy him, entangle in thy snares the Brahman’s tyrant!

    Footnote

    See Atharva, 4-2-1, Rig, 10-121, 2-3, Yajur, 25-13-11.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २४-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ४।२।१। (यः) परमेश्वरः (आत्मदाः) प्राणदाता (बलदाः) बलदाता (यस्य) (विश्वे) सर्वे (उपासते) सेवन्ते (प्रशिषम्) अनुशासनम् (यस्य) (देवाः) गतिमन्तः सूर्यादिलोकाः (यः) (अस्य) (ईशे) तलोपः। ईष्टे। ईश्वरो भवति (द्विपदः) पादद्वयोपेतस्य (यः) (चतुष्पदः) पादचतुष्टययुक्तस्य ॥

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