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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 7
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - चतुरवसाना सप्तपदानुष्टुब्गर्भातिधृतिः सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    49

    यो अ॑न्ना॒दो अन्न॑पतिर्ब॒भूव॒ ब्रह्म॑ण॒स्पति॑रु॒त यः। भू॒तो भ॑वि॒ष्यद्भुव॑नस्य॒ यस्पतिः॑। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒न्न॒ऽअ॒द: । अन्न॑ऽपति: । ब॒भूव॑ । ब्रह्म॑ण: । पति॑: । उ॒त । य: । भू॒त: । भ॒वि॒ष्यत् । भुव॑नस्य । य: । पति॑: । तस्य॑ । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्ष‍ि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न् ॥३.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अन्नादो अन्नपतिर्बभूव ब्रह्मणस्पतिरुत यः। भूतो भविष्यद्भुवनस्य यस्पतिः। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अन्नऽअद: । अन्नऽपति: । बभूव । ब्रह्मण: । पति: । उत । य: । भूत: । भविष्यत् । भुवनस्य । य: । पति: । तस्य । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्ष‍िणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान् ॥३.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 3; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो [परमेश्वर] (अन्नादः) अन्न का खिलानेवाला, (अन्नपतिः) अन्न का स्वामी, (उत) और (यः) जो (ब्रह्मणः) वेदज्ञान का (पतिः) रक्षक (बभूव) हुआ है, (यः) जो (भुवनस्य) संसार का (भूतः) अतीत काल में रहनेवाला और (भविष्यत्) आगे रहनेवाला (पतिः) स्वामी है। (तस्य) उस (क्रुद्धस्य) क्रुद्ध (देवस्य) प्रकाशमान [ईश्वर] के लिये.... [म० १] ॥७॥

    भावार्थ

    मन्त्र १ के समान ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(यः) परमेश्वरः (अन्नादः) अन्नमादयति भक्षयतीति सः (अन्नपतिः) (बभूव) (ब्रह्मणः) वेदज्ञानस्य (पतिः) स्वामी (उत) अपि (यः) (भूतः) अतीतकाले भवः (भविष्यत्) अनागतकाले वर्तमानः (भुवनस्य) सत्तावतो लोकस्य (यः) (पतिः) ॥

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    विषय

    अन्नाद-प्रजापति-ब्रह्मणस्पति

    पदार्थ

    १. (यः) = जो प्रभु (अनादः) = सब अन्नों का अदन करनेवाले हैं [अहं अन्नादः, 'यस्य ब्रह्म च क्षत्रं चोभे भवतः ओदने'] (अन्नपतिः बभूव) = जो सब अन्नों के स्वामी व रक्षक हैं (उत यः ब्रह्मणस्पति:) = और जो ज्ञान के स्वामी है। २. (य:) = जो (भूतः) = दूर-से-दूर भूतों में भी सदा से वर्तमान, (भविष्यत्) = भविष्यत् में भी सदा रहनेवाले ['कभी नहीं थे', यह नहीं कभी नहीं रहेंगे', यह भी नहीं] प्रभु हैं, (यः भुवनस्य) = जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के (पतिः) = स्वामी हैं, उस ब्रह्म के प्रति यह अपराध है कि उसप्रकार के ब्रह्मज्ञानी की हिंसा करना। शेष पूर्ववत्।

    भावार्थ

    जो ब्रह्मज्ञानी प्रभु को 'अन्नाद, अन्नपति व ब्रह्मणस्पति' रूप में देखता है और जो प्रभु को 'सदा से वर्तमान, सदा से रहनेवाला' भुवनपति जानता है उस ब्रह्मज्ञानी की हिंसा करना महान् पाप है।

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    भाषार्थ

    (यः) जो (अन्नादः) अन्नभक्षक, (अन्नपतिः) अन्नों का स्वामी, (उत) तथा (यः) जो (ब्रह्मणस्पतिः) वेदों का स्वामी, (बभूव) हुआ हैं। (यः) जो (भुवनस्य) उत्पन्न जगत् का (पतिः) स्वामी है, (भूतः) हुआ है (भविष्यत्) और होगा। (तस्य देवस्य....... पाशान्) पूर्ववत् (मन्त्र १)

    टिप्पणी

    [अन्नादः = परमेश्वर अन्नाद है। समग्र प्राणी तथा अप्राणी उसके अन्न हैं, उन्हें वह खाता रहता है। जैसे कहा है- "यस्य ब्रह्म च क्षत्रं चोभे भवत ओदनः । मृत्युयस्योपसेचनं क इत्त्था वेद यत्र सः ॥ (कठोप० २।२५)। अर्थात् ब्राह्मतेजः सम्पन्न और क्षात्र शक्ति सम्पन्न व्यक्ति जिस के ओदन अर्थात् भात है, और मृत्यु जिस का उपसेचन अर्थात् भात को सींचने का पदार्थ दाल आदि है उसे कौन वास्तव में जानता है, जहां कि वह है, अर्थात् हृदय में है या मस्तिष्क में इन में से कहां उसका प्रत्यक्ष होता है। इस द्वारा यह जतलाया है कि जो परमेश्वर ब्रह्म और क्षत्र समान प्रवल व्यक्तियों को अपना भात बनाता है उस के लिये वैश्य और शुद्र तो सुतरां ओदन या भातरूप है, और जड़ पदार्थों की तो गिनती है क्या है ? वह परमेश्वर समग्र चराचर का पति है अन्नपति है, और साथ ही ज्ञानमय वेदों का भी वह ही पति है। परमेश्वर अन्नाद है, परन्तु अन्न१ भी है। भक्त उपासक समाधि में इस परमेश्वर के आनन्द रस-रूपी अन्न का आस्वादन करते हैं। "रसो वै सः रसं ह्येष लब्ध्वाऽऽनन्दो भवति" (तैत्तिरीयोप० २।७)]। [१. "अहमन्नम्, अहमन्नादः" (तै० उप० व्रह्मानन्द वल्ली २)।]

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    विषय

    रोहित, आत्मा ज्ञानवान् राजा और परमात्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    (यः) जो स्वयं परमेश्वर (अन्नादः) समस्त विश्व को अपना न बना कर खाजाता है और स्वयं (अन्नपतिः बभूव) अन्नमय समस्त लोकों का पति = स्वामी है (उत) और (यः) जो (ब्रह्मणः पतिः) ब्रह्मवेद का स्वामी है। (भूतः भविष्यद्) जो स्वयं भूत और भविष्यत् रूप होकर (भुवनस्य) इस भुवन, उत्पन्न होने हारे वर्तमान जगत् का भी (यः पतिः) जो स्वामी है। (तस्य०) इत्यादि पूर्ववत्। अन्न वै सर्वेषा भूतानाम् आत्मा। गो० उ० १। २। ३॥

    टिप्पणी

    ‘भूतो भविष्यन्’ इति ह्विटनिकामितः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मम्। रोहित आदित्य देवता। १ चतुरवसानाष्टपदा आकृतिः, २-४ त्र्यवसाना षट्पदा [ २, ३ अष्टिः, २ भुरिक् ४ अति शाक्वरगर्भा धृतिः ], ५-७ चतुरवसाना सप्तपदा [ ५, ६ शाक्वरातिशाक्वरगर्भा प्रकृतिः ७ अनुष्टुप् गर्भाति धृतिः ], ८ त्र्यवसाना षट्पदा अत्यष्ठिः, ६-१९ चतुरवसाना [ ९-१२, १५, १७ सप्तपदा भुरिग् अतिधृतिः १५ निचृत्, १७ कृति:, १३, १४, १६, १९ अष्टपदा, १३, १४ विकृतिः, १६, १८, १९ आकृतिः, १९ भुरिक् ], २०, २२ त्र्यवसाना अष्टपदा अत्यष्टिः, २१, २३-२५ चतुरवसाना अष्टपदा [ २४ सप्तपदाकृतिः, २१ आकृतिः, २३, २५ विकृतिः ]। षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    To the Sun, against Evil Doer

    Meaning

    He that is the cosumer, creator, protector and promoter of the food of life, he that is the originator, preserver and promoter of Vedic knowledge and enlightenment, he that is the lord and master of past, future and all that is going on at present, to that Lord Supreme, that person is an offensive sinner who violates a Brahmana, the man who knows Brahma in truth. O Rohita, Ruler high risen and brilliant, shake up that person, punish him down to naught, extend the arms of law, justice and correction to the Brahmana- violator.

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    Translation

    He, who being the Lord of food, has become the consumer of food, and who is also the Lord of knowledge; who is the Lord of the existence past, present and future -- to that wrarthful (enraged) Lord it is offending that some one scathes such a learned intellectual person. O ascending one, make him tremble, destroy him, put your snares upon the harasser of intellectual persons.

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    Translation

    He who........who is the decomposer of the Anna, the universe who is the protector and master of the universe who is the reveler of knowledge (the Veda) and who was, is and shall be the master of the cosmic order.

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    Translation

    God is the Bestower and Master of food. He is the Guardian of Vedic knowledge. He was, is and shall be the Lord of the universe. This God is wroth offended by the sinner who vexes the Brahman who hath gained this knowledge. Terrify him, O King, destroy him, entangle him in thy snares the Brahman’s tyrant.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(यः) परमेश्वरः (अन्नादः) अन्नमादयति भक्षयतीति सः (अन्नपतिः) (बभूव) (ब्रह्मणः) वेदज्ञानस्य (पतिः) स्वामी (उत) अपि (यः) (भूतः) अतीतकाले भवः (भविष्यत्) अनागतकाले वर्तमानः (भुवनस्य) सत्तावतो लोकस्य (यः) (पतिः) ॥

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