अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 16
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - चतुरवसानाष्टपदाकृतिः
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
121
शु॒क्रं व॑हन्ति॒ हर॑यो रघु॒ष्यदो॑ दे॒वं दि॒वि वर्च॑सा॒ भ्राज॑मानम्। यस्यो॒र्ध्वा दिवं॑ त॒न्वस्तप॑न्त्य॒र्वाङ्सु॒वर्णैः॑ पट॒रैर्वि भाति॑। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठशु॒क्रम् । व॒ह॒न्ति॒ । हर॑य: । र॒घु॒ऽस्यद॑: । दे॒वम् । दि॒वि । वर्च॑सा । भ्राज॑मानम् । यस्य॑ । ऊ॒र्ध्वा: । दिव॑म् । त॒न्व᳡: । तप॑न्ति । अ॒र्वाङ् । सु॒ऽवर्णै॑: । प॒ट॒रै: । वि । भा॒ति॒ । तस्य॑ । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्षि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न्। ॥२.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
शुक्रं वहन्ति हरयो रघुष्यदो देवं दिवि वर्चसा भ्राजमानम्। यस्योर्ध्वा दिवं तन्वस्तपन्त्यर्वाङ्सुवर्णैः पटरैर्वि भाति। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥
स्वर रहित पद पाठशुक्रम् । वहन्ति । हरय: । रघुऽस्यद: । देवम् । दिवि । वर्चसा । भ्राजमानम् । यस्य । ऊर्ध्वा: । दिवम् । तन्व: । तपन्ति । अर्वाङ् । सुऽवर्णै: । पटरै: । वि । भाति । तस्य । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्षिणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान्। ॥२.१६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(रघुष्यदः) शीघ्रगामी (हरयः) अज्ञाननाशक मनुष्य (शुक्रम्) वीर्यवान्, (देवम्) ज्ञानवान्, (दिवि) प्रत्येक व्यवहार में (वर्चसा) तेज से (भ्राजमानम्) प्रकाशमान [परमेश्वर] को (वहन्ति) पाते हैं। (यस्य) जिस [परमेश्वर] के (ऊर्ध्वाः) ऊँचे (तन्वः) उपकार (दिवम्) सूर्य को (तपन्ति) तपाते हैं, (अर्वाङ्) समीपवर्ती वह (सुवर्णैः) बड़े श्रेष्ठ (पटरैः) प्रकाशों के साथ (वि भाति) चमकता जाता है। (तस्य) उस (क्रुद्धस्य) क्रुद्ध (देवस्य) प्रकाशमान [ईश्वर] के लिये.... [म० १] ॥१६॥
भावार्थ
बुद्धिमान् मनुष्य निरालसी होकर परमेश्वर की उपासना से पराक्रमी और प्रतापी होवें ॥१६॥
टिप्पणी
१६−(शुक्रम्) अर्शआद्यच्। वीर्यवन्तम् (वहन्ति) प्राप्नुवन्ति (हरयः) हरयो मनुष्यनाम-निघ० २।३। अज्ञाननाशका मनुष्याः (रघुष्यदः) शीघ्रगामिनः (देवम्) ज्ञानिनम् (दिवि) व्यवहारे (वर्चसा) तेजसा (भ्राजमानम्) दीप्यमानम् (यस्य) परमेश्वरस्य (ऊर्ध्वाः) उन्नताः (दिवम्) सूर्यम् (तन्वः) तन उपकारे-ऊ प्रत्ययः। उपकृतयः (तपन्ति) तापयन्ति (अर्वाङ्) समीपवर्ती परमेश्वरः (सुवर्णैः) सुवरणीयैः (पटरैः) अर्त्तिकमिभ्रमिचमि०। उ० ३।१३२। पट गतौ, दीप्तौ वेष्टने च-अर प्रत्ययः। प्रकाशैः (वि) विविधम् (भाति) दीप्यते ॥
विषय
रघुष्यदः हरयः
पदार्थ
१. उस (शुभ्रम्) = शुद्ध [शुच] (देवम्) = प्रकाशमय, (दिवि) = द्युलोक में [सम्पूर्ण आकाश में] (वर्चसा) = दीप्ति से (भ्राजमानम्) = दीप्त होते प्रभु को (रघुष्यदः) = तीव्र गतिवाले, स्फूर्ति के साथ अपने कर्तव्यकों के करने में लगे हुए (हरय:) = अज्ञान का हरण [नाश] करनेवाले, ज्ञानकिरणों से दीस मनुष्य (वहन्ति) = धारण करते हैं। प्रभु की प्राप्ति 'ज्ञानपूर्वक कर्तव्यकर्म-परायण' पुरुषों को ही होती है। २. (यस्य) = जिस प्रभु के (ऊर्ध्वाः तन्वः) = ऊपर होनेवाले शक्तियों के विस्तार [तन् विस्तारे] (दिवं तपन्ति) = द्युलोक को-द्युलोकस्थ नक्षत्रों व सूर्यो को दीस करते हैं, वे प्रभु ही (अर्वाङ्) = यहाँ नीचे (सुवर्णै:) = उत्तम वर्णोवाले (पटरै:) = प्रकाशों से [पट दीप्तौ] (विभाति) = विशिष्टरूप से अथवा विविधरूपों से चमकता है। यहाँ पृथिवी पर भी प्रत्येक पुष्प-फलादि की अपनी निराली ही शोभा है। इस सब शोभा का मूल वे प्रभु ही हैं। इस प्रकार प्रभु की महिमा के द्रष्टा ब्रह्मज्ञानी का हनन ब्रह्म के प्रति महान् अपराध है। शेष पूर्ववत्।
भावार्थ
प्रभु का धारण कर्तव्य-कर्मपरायण ज्ञानी पुरुष ही करते हैं। वे प्रभु शुद्ध हैं, प्रकाशमय हैं। प्रभु की शक्ति से ही सूर्यादि पिण्ड दीप्त हो रहे हैं और वे प्रभु ही उत्तम वर्णीवाले प्रकाशों से इन पुष्य-फलों में दीप्त हो रहे हैं, इस प्रभु के ज्ञाता ब्रह्मज्ञानी का हनन महान् अपराध है।
भाषार्थ
(दिवि) द्युलोक में (वर्चसा) तेज द्वारा (भ्राजमानम्) चमकते हुए, (शुक्रम्, देवम्) पवित्र सूर्य-देव को (रघुष्यदः हरयः) शीघ्रगामी रश्मिरूपी अश्व (वहन्ति) हम तक प्राप्त कराते हैं। (यस्य) जिस सूर्य देव के (ऊर्ध्वाः) ऊर्ध्व दिशा के (तन्वः) रश्मिविस्तार (दिवं तपन्ति) द्युलोक को तपाते हैं, और (अवङि्) नीचे पृथिवी की ओर वह (सुवर्णैः) सुवर्णमय (पटरैः) रश्मि समूह द्वारा (विभाति) प्रदीप्त होता है। (तस्य देवस्य.......पाशान्) पूर्ववत् (मन्त्र १)। [परमेश्वर पक्ष में— (दिवि) मस्तिक में (वर्चसा भ्राजमानम्) तेज द्वारा चमकते हुए (शुक्रम्, देवम्) पवित्र परमेश्वर देव को (रघुष्यदः हरयः) तीव्रवेगी प्रत्याहार आदि योगाङ्गों वाले योगिजन (वहन्ति) प्राप्त करते हैं। (यस्य) जिस के (ऊर्ध्वाः, तन्वः) ऊपर के मस्तिष्क में विस्तार (दिवम्) मस्तिष्क को (तपन्ति) प्रकाशित करते हैं, और जो (अर्वाङ्) अधःस्थ हृदय में (सुवर्णैः) उत्तम वर्णों वाले (पटरः) प्रकाशसमूहों द्वारा (विभाति) विविध प्रकार से चमकता है। (तस्य देवस्य....... पाशान्) पूर्ववत् (मन्त्र १)।]
टिप्पणी
[वहन्ति = वह प्रापणे। सूर्य का हमारे साथ सम्बन्ध उस की रश्मियों द्वारा होता है। सूर्य के वर्णन द्वारा सूर्य के अधिष्ठाता परमेश्वर का भी वर्णन जानना चाहिए। "क्रुद्ध" परमेश्वर ही हो सकता है, सूर्य नहीं। "तस्य देवस्य क्रुद्धस्य पाशान्" इस मन्त्र भाग को प्रत्येक मन्त्र के साथ बार-बार कथन का अभिप्राय है कि जिन मन्त्रों में सूर्य-पिण्ड का वर्णन प्रतीत होता है, उन में उस के अधिष्ठाता परमेश्वर का भी वर्णन समझा जाय।][परमेश्वर पक्ष में - दिवि= "दिवं यश्चक्रे मूर्धानम्" (अथर्व० १०।७।३२)। "शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत" (यजु० ३१।१३)। शुक्रम्= शुचिर् पूतिभावे। हरयः मनुष्यनाम (निघं० २।३)। वहन्ति = वह प्रापणे। तन्वः = तनु विस्तारे। पटरैः =पटलैः समूहैः। सुवर्णैः="हृदयपुण्डरीके धारयतो या बुद्धिसंवित्, बुद्धिसत्त्वं हि भास्वरमाकाश कल्पं, तत्र स्थिति वैशारद्यात् प्रवृत्तिः सूर्येन्दुग्रहमणिप्रभारूपाकारेण विकल्पते" (योग १।३६, व्यास भाष्य), अर्थात् "हृदयकमल में चित्त की धारणा करने वाले को जो चित्त संवित्, अर्थात् आकाशवत् प्रकाशवती प्रवृत्ति,- सूर्य, चन्द्र, तथा मणि की प्रभारूप में नानारूप वाली होती है"। ये उत्तमवर्णों वाले प्रकाशसमूह, हृदयकाल में योगी को प्रकट होते है। इन प्रकाश समूहों द्वारा इन में मानो परमेश्वर की ज्योति चमकती है, जैसे कि वह चान्द, सूर्य, तथा तारागणों में चमक रही है। इन ज्योतियों के प्रकट होने पर, चित्त अधिकाधिक स्थिरता को प्राप्त हो कर, परमेश्वर के साक्षात्कार में हेतुभूत हो जाता है। रघुष्यदः = "तीव्रसंवेगानामासन्नः" (योग १।२१), अर्थात् तीव्र संवेग (वेग या वैराग्य) वालों को समाधिलाभ तथा समाधि का फल शीघ्र प्राप्त हो जाता है]।
विषय
रोहित, आत्मा ज्ञानवान् राजा और परमात्मा का वर्णन।
भावार्थ
(दिवि) आकाश में (वर्चसा) तेज से (भ्राजमानम्) देदीप्यमान (देवम्) उस सर्व प्रकाशक (शुक्रम्) शुद्ध ज्योतिर्मय परमेश्वर को (रघुष्यदः) अति तीव्र, वेगवान् (हरयः) किरणों के समान गतिशील लोक या मुमुक्षुजन (वहन्ति) अपने में धारण करते या प्राप्त करते हैं। और (यस्य) जिसके बनाये (ऊर्ध्वाः) ऊपर विद्यमान (तन्वः) पिण्ड, ज्योतिर्मय सहस्रों लोक (दिवं तपन्ति) आकाश को प्रकाशित करते हैं और जो (अर्वाङ्) नीचे के प्रदेश में भी (सुवर्णैः) उत्तमवर्ण के (पटरैः = पटलैः) तेजोमय सूर्यो से (विभाति) विविध प्रकार से शोभा देता है। (तस्य० इत्यादि) पूर्ववत्।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मम्। रोहित आदित्य देवता। १ चतुरवसानाष्टपदा आकृतिः, २-४ त्र्यवसाना षट्पदा [ २, ३ अष्टिः, २ भुरिक् ४ अति शाक्वरगर्भा धृतिः ], ५-७ चतुरवसाना सप्तपदा [ ५, ६ शाक्वरातिशाक्वरगर्भा प्रकृतिः ७ अनुष्टुप् गर्भाति धृतिः ], ८ त्र्यवसाना षट्पदा अत्यष्ठिः, ६-१९ चतुरवसाना [ ९-१२, १५, १७ सप्तपदा भुरिग् अतिधृतिः १५ निचृत्, १७ कृति:, १३, १४, १६, १९ अष्टपदा, १३, १४ विकृतिः, १६, १८, १९ आकृतिः, १९ भुरिक् ], २०, २२ त्र्यवसाना अष्टपदा अत्यष्टिः, २१, २३-२५ चतुरवसाना अष्टपदा [ २४ सप्तपदाकृतिः, २१ आकृतिः, २३, २५ विकृतिः ]। षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
To the Sun, against Evil Doer
Meaning
Waves of energy at the speed of light irradiate the sun, pure, powerful and divine, shining with splendour in heavn. His radiant rays of light set the heaven ablaze as he shines forth toward the earth below with golden bursts of light showers. To that Divine Sun, that person is an offensive sinner who violates a Brahmana, the person who knows Brahma in truth. O Rohita, Ruler on high, shake up that sinner, punish him down to naught, extend the snares of law, justice and retribution to the Brahmana-violator.
Translation
Swift-moving coursers bear along the bright Lord blazing with lustre in the heaven; him, whose upper parts heat up the sky, and downward part shines with colourful rays (rays of beautiful colours) -- to that wrathful (enraged) Lord it is offending that some one: scathes such a learned intellectual person. O ascending one, make him tremble; destroy him; put your snares upon the harasser of intellectual persons.
Translation
He who...........to whose refulgent, mighty sun which is splendid with splendor, the moving rays support it in the space, the parts of them lifted above heat the heaven and which with colored beams shines here (on earth etc.).
Translation
Highly active emancipated souls attain to the Refulgent God, aglow with splendor in the sky. Thousands of worlds high above created by Him illumine the heavens. He shines with nnumerable Suns of fine colour in the lower part of the universe. This God is wroth offended by the sinner who vexes the Brahman who hath gained this knowledge. Terrify him, O King, destroy him, entangle in thy snares the Brahman’s tyrant!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१६−(शुक्रम्) अर्शआद्यच्। वीर्यवन्तम् (वहन्ति) प्राप्नुवन्ति (हरयः) हरयो मनुष्यनाम-निघ० २।३। अज्ञाननाशका मनुष्याः (रघुष्यदः) शीघ्रगामिनः (देवम्) ज्ञानिनम् (दिवि) व्यवहारे (वर्चसा) तेजसा (भ्राजमानम्) दीप्यमानम् (यस्य) परमेश्वरस्य (ऊर्ध्वाः) उन्नताः (दिवम्) सूर्यम् (तन्वः) तन उपकारे-ऊ प्रत्ययः। उपकृतयः (तपन्ति) तापयन्ति (अर्वाङ्) समीपवर्ती परमेश्वरः (सुवर्णैः) सुवरणीयैः (पटरैः) अर्त्तिकमिभ्रमिचमि०। उ० ३।१३२। पट गतौ, दीप्तौ वेष्टने च-अर प्रत्ययः। प्रकाशैः (वि) विविधम् (भाति) दीप्यते ॥
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