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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 18
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - चतुरवसानाष्टपदाकृतिः सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    44

    स॒प्त यु॑ञ्जन्ति॒ रथ॒मेक॑चक्र॒मेको॒ अश्वो॑ वहति स॒प्तना॑मा। त्रि॒नाभि॑ च॒क्रम॒जर॑मन॒र्वं यत्रे॒मा विश्वा॒ भुव॒नाधि॑ त॒स्थुः। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्त । यु॒ञ्ज॒न्ति॒ । रथ॑म् । एक॑ऽचक्रम् । एक॑: । अश्व॑: । व॒ह॒ति॒ । स॒प्तऽना॑मा । त्रि॒ऽनाभि॑ । च॒क्रम् । अ॒जर॑म् । अ॒न॒र्वम् । यत्र॑ । इ॒मा । विश्वा॑ । भुव॑ना । अधि॑ । त॒स्थु: । तस्य॑ । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्ष‍ि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न् ॥३.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्त युञ्जन्ति रथमेकचक्रमेको अश्वो वहति सप्तनामा। त्रिनाभि चक्रमजरमनर्वं यत्रेमा विश्वा भुवनाधि तस्थुः। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सप्त । युञ्जन्ति । रथम् । एकऽचक्रम् । एक: । अश्व: । वहति । सप्तऽनामा । त्रिऽनाभि । चक्रम् । अजरम् । अनर्वम् । यत्र । इमा । विश्वा । भुवना । अधि । तस्थु: । तस्य । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्ष‍िणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान् ॥३.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 3; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (सप्त) सात [इन्द्रियाँ−त्वचा, नेत्र, कान, जीभ, नाक, मन और बुद्धि] (एकचक्रम्) एक चक्रवाले [अकेले पहिये के समान काम करनेवाले जीवात्मा से युक्त] (रथम्) रथ [वेगशील वा रथ समान, शरीर को] (युञ्जन्ति) जोड़ते हैं, (एकः) अकेला (सप्तनामा) सात [त्वचा आदि इन्द्रियाँ] से झुकनेवाला [प्रवृत्ति करनेवाला] (अश्वः) अश्व [अश्वरूप व्यापक जीवात्मा] (त्रिनाभि) [सत्त्व रज और तमोगुण रूप] तीन बन्धनवाले (अजरम्) चलनेवाले [वा जीर्णतारहित,] (अनर्वम्) न टूटे हुए (चक्रम्) चक्र [चक्रसमान काम करनेवाले अपने जीवात्मा] को [उस परमात्मा में] (वहति) ले जाता है, (यत्र) जिस [परमात्मा] में (इमा) यह (विश्वा) सब (भुवना) सत्ताएँ (अधि) यथावत् (तस्थुः) ठहरी हैं। (तस्य) उसे (क्रुद्धस्य) क्रुद्ध (देवस्य) प्रकाशमान [ईश्वर] के लिये.... [मन्त्र १] ॥१८॥

    भावार्थ

    यह जीवात्मा इन्द्रियों द्वारा पुरुषार्थ करके संसार के सूक्ष्म और स्थूल पदार्थों के यथावत् ज्ञान से जगदीश्वर को जानकर आनन्द पावे ॥१८॥आवृत्ति छोड़कर यह मन्त्र ऊपर आ चुका है-अ० ९।९।२ और ऋग्वेद में है−१।१६४।२ ॥

    टिप्पणी

    १८−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ९।९।२। तत्रैव द्रष्टव्यः ॥

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    विषय

    शरीररूप रथ

    पदार्थ

    १. (सप्त) = सात [कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्] कर्णादि शरीरस्थ ऋषि (एकचक्रं रथम्) = एक चक्रबाले-अकेले पहिये के समान काम करनेवाले जीवात्मा से युक्त शरीर-रथ को (युञ्जन्ति) = जोतते हैं। जीवात्मारूप चक्रवाले इस शरीर-रथ में ये सप्तर्षि जुते हुए हैं। वस्तुतः (एकः अश्व:) = शरीर में सर्वत्र व्यास शक्तिवाला अकेला जीव [अशु व्याप्ती] (सप्तनाम:) = इन सात ऋषियों की ओर झुकनेवाला-इन सातों को अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त करनेवाला वहति-अपने को वहाँ प्राप्त कराता है (यत्र इमा विश्वा भुवना) = जहाँ ये सब भुवन (अधितस्थः) = स्थित हैं, अर्थात् अपने को परमात्मा में प्राप्त कराता है। २. यह (चक्रम्) = शरीरस्थ कर्ता जीव (त्रिनाभि) = 'सत्त्व, रज व तम' प्रकृति के तीन गुणों के बन्धनवाला है। इन तीन के बन्धन से ही आत्मा को शरीर में आना होता है। वास्तव में यह (अजरम्) = कभी जीर्ण होनेवाला तथा (अनवम्) = कभी हिसित होनेवाला नहीं है [न हन्यते हन्यमाने शरीरे]। शरीर ही उत्पन्न व नष्ट हुआ करता है, वह चक्र [कर्ता] तो 'न जायते म्रीयते वा कदाचित् न पैदा होता है, न मरता है। शरीर-रथ की अद्भुत रचना को समझनेवाला ब्रह्मज्ञानी आदरणीय है। उसका हनन ब्रह्म के प्रति महान् अपराध है।

    भावार्थ

    इस शरीर-रथ में 'दोकान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें व मुख' ये सात ऋषि जुड़े हुए हैं। जीवात्मा यहाँ कर्ता है। वह 'सत्त्व, रज व तम' के बन्धन में पड़कर शरीर में आता-जाता है। वस्तुतः वह न जीर्ण होनेवाला, न मरनेवाला है। इस आत्मतत्त्व को समझनेवाले ज्ञानी का हनन महान् पाप है।

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    भाषार्थ

    (एकचक्रम् रथम्) एक चक्र वाले रथ को (सप्त युञ्जन्ति) सात अश्व (युञ्जन्ति) जोतते हैं, वस्तुतः (सप्तनामा) सात अश्वों में परिणत होने वाला (एकः अश्व) एक अश्व (वहति) रथ को चलाता है। (चक्रम्) चक्र (त्रिनाभि) तीन नाभियों वाला, (अजरम्) जरा रहित (अनर्वम) नाश रहित है, (यत्र) जिस चक्र में (इमा विश्वा भुवना) ये सब भुवन (अधि तस्थुः) अधिष्ठित है। (तस्य देवस्य........पाशान्) पूर्ववत् (मन्त्र १) । अनर्वम् = अथवा बिना प्राणी घोड़े का चक्र रथ।

    टिप्पणी

    [एकचक्र रथ = सूर्य। सूर्य चक्राकार है, गोल है, और अकेला आकाश में विचरता है। सूर्य के विचरते काल में चान्द, नक्षत्र, तारागण नहीं होते। सूर्यरथ का वहन एक जातीय शुभ्रवर्ण वाली रश्मियां करती हैं जोकि सप्तरंगी सात रश्मियों में फट कर परिणत हो जाती हैं। तीन ऋतुएँ अर्थात् ग्रीष्म, वर्षा और शरद् मानो इस चक्र की तीन नाभियां१ है। रथ के चक्र अपनी अपनी रथ-नाभि के चारों ओर घूमते हैं। सूर्यरूपी चक्र, नाभिरूप तीन ऋतुओं के चारों ओर मानो घूम रहा है। सूर्य के आधार पर सब सौर-भुवन अधिष्ठित हैं। "विश्वा भुवना" पद द्वारा सूर्य के अधिष्ठाता परमेश्वर का वर्णन भी अभिप्रेत हैं, जिस के आश्रय जगत् के समग्र भुवन अधिष्ठित हैं। इस सूर्य-रथ पर सूर्य का स्वामी परमेश्वर अधिष्ठित है। "एक चक्रं रथम्” एक चक्र वाले रथ की सम्भावना को सूचित किया है, अर्थात् mono cycle vehicle को]। [१. नाभियां=केन्द्र। सौर-चक्र की ३ नाभियां अर्थात् केन्द्र कहे हैं। तीन केन्द्रों पर की परिधि या चक्र वृत्ताकार न हो कर बृहद् अण्डाकार होता है। वेदानुसार सूर्य नहीं चलता, अपितु पृथिवी चलती है। पृथिवी के चलने से सूर्य चलता प्रतीत होता है। अतः पृथिवी के मार्ग की अण्डाकृति दर्शाई है। अथवा त्रिणाभि चक्रम् = ग्रीष्म, वर्षा, शरद् ऋतुरूपी ३ नाभियां।]

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    विषय

    रोहित, आत्मा ज्ञानवान् राजा और परमात्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    (सप्त) सात शीर्षगत प्राण (एकचक्रम् रथम्) एक कर्त्ता से युक्त रथ को (युञ्जन्ति) उसमें जुतकर वहन करते हैं। और (एकः) एक (अश्वः) उन सब का भोक्ता (सप्तनामा) सातों का नाम धारण करके उनको (वहति) धारण करता है। (त्रिनाभि चक्रम्) तीन सत्व, रजः, तमः इनमें बंधा हुआ, तीन नाभियों से युक्त चक्र = कर्त्ता वह आत्मा (अजरम्) कभी न जीर्ण होने वाला (अनर्वम्) विना घोड़े के चलनेहारे चक्त के समान स्वयं भी (अनर्वम्) दूसरे किसी अन्य प्रेरक की सहायता न लेता हुआ स्वयं चेतन विद्यमान है (यत्र) जिसमें (इमा) ये (विश्वा भुवनानि) समस्त लोक और इन्द्रिय आदिगण (तस्थुः) स्थिर हैं। (तस्य०) इत्यादि पूर्ववत्। अथवा—(एकचक्रम् रथम्) एक मात्रकर्त्ता और रमण करने योग्य आत्मा में (सप्त युञ्जन्ति) सात चक्षु आदि प्राण (युज्जन्ति) जब योग देते हैं, संयुक्त हो या समाहित होकर रहते हैं तब वह (एकः अश्वः सप्तनामा वहति) एक ही भोक्ता सातों का नाम धारण करके स्वयं उनको धारण करता है। “श्रोत्रस्य श्रोत्रमुत मनसो मनो वाचो ह वाचमुत प्राणस्य प्राणः” इति केनोपनिषद् व्याख्या देखो अथर्व० ९। ९। २॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मम्। रोहित आदित्य देवता। १ चतुरवसानाष्टपदा आकृतिः, २-४ त्र्यवसाना षट्पदा [ २, ३ अष्टिः, २ भुरिक् ४ अति शाक्वरगर्भा धृतिः ], ५-७ चतुरवसाना सप्तपदा [ ५, ६ शाक्वरातिशाक्वरगर्भा प्रकृतिः ७ अनुष्टुप् गर्भाति धृतिः ], ८ त्र्यवसाना षट्पदा अत्यष्ठिः, ६-१९ चतुरवसाना [ ९-१२, १५, १७ सप्तपदा भुरिग् अतिधृतिः १५ निचृत्, १७ कृति:, १३, १४, १६, १९ अष्टपदा, १३, १४ विकृतिः, १६, १८, १९ आकृतिः, १९ भुरिक् ], २०, २२ त्र्यवसाना अष्टपदा अत्यष्टिः, २१, २३-२५ चतुरवसाना अष्टपदा [ २४ सप्तपदाकृतिः, २१ आकृतिः, २३, २५ विकृतिः ]। षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    To the Sun, against Evil Doer

    Meaning

    O Rohita, Ruler on high, shake up that sinner, punish him down to naught, extend the snares of law, justice and retribuction to the Brahmana-violator.

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    Translation

    Seven harness a one-wheeled chariot; one horse, having seven names, draws (it); or three naves (is) the wheel, unwasting, unassailed, whereon stand all these existences -- to that wrathful (enraged) Lord it is offending that some one scathes such a learned intellectual person. O ascending one, make him tremble; destroy him; put your snares upon the harasser of intellectual persons.

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    Translation

    He who……under whose ordinance the seven rays of the sun are yoked to a single-wheeled chariot (the wheel of the sun) and one white rays which is made out of seven draws it, three-navelled wheel the period of year in which the summer, the rainy season and winter are included, is imperishable and irresistible and wherein rest all the worlds.

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    Translation

    Seven organs unite the independent soul with the body. The undecaying, immortal, three-naved, solitary soul, the master of seven organs, takes itself to God, on Whom all these worlds of life are dependent. This God is wroth offended by the sinner who vexes the Brahman who hath gained this knowledge. Terrify him, O King, destroy him, entangle in thy snares the Brahman’s tyrant!

    Footnote

    See Atharva, 9.9.2.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १८−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० ९।९।२। तत्रैव द्रष्टव्यः ॥

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