अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 11
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - चतुरवसाना सप्तपदा भुरिगतिधृतिः
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
62
बृ॒हदे॑न॒मनु॑ वस्ते पु॒रस्ता॑द्रथन्त॒रं प्रति॑ गृह्णाति प॒श्चात्। ज्योति॒र्वसा॑ने॒ सद॒मप्र॑मादम्। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठबृ॒हत् । ए॒न॒म् । अनु॑ । व॒स्ते॒ । पु॒रस्ता॑त् । र॒थ॒म्ऽत॒रम् । प्रति॑ । गृ॒ह्णा॒ति॒ । प॒श्चात् । ज्योति॑: । वसा॑ने॒ इति॑ । सद॑म् । अप्र॑ऽमादम् । । तस्य॑ । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्षि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न् ॥३.११॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहदेनमनु वस्ते पुरस्ताद्रथन्तरं प्रति गृह्णाति पश्चात्। ज्योतिर्वसाने सदमप्रमादम्। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥
स्वर रहित पद पाठबृहत् । एनम् । अनु । वस्ते । पुरस्तात् । रथम्ऽतरम् । प्रति । गृह्णाति । पश्चात् । ज्योति: । वसाने इति । सदम् । अप्रऽमादम् । । तस्य । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्षिणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान् ॥३.११॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(बृहत्) बृहत् [बड़ा आकाश] (पुरस्तात्) आगे से (एनम्) इस [परमेश्वर] को (अनु) निरन्तर (वस्ते) ओढ़ता है, (रथन्तरम्) रथन्तर [रमणीय पदार्थों द्वारा पार लगानेवाला जगत्] (पश्चात्) पीछे से [परमेश्वर को] (प्रति) प्रत्यक्ष (गृह्णाति) ग्रहण करता है। [दोनों, आकाश और जगत्] (अप्रमादम्) बिना चूक (ज्योतिः) ज्योतिःस्वरूप [परमात्मा] को (सदम्) सदा (वसाने) ओढ़े हुए [रहते हैं]। (तस्य) उस (क्रुद्धस्य) क्रुद्ध (देवस्य) प्रकाशमान [ईश्वर] के लिये.... [म० १] ॥११॥
भावार्थ
वह परमात्मा इतना बड़ा है कि उसके भीतर यह सब आकाश और सब जगत् समा रहा है, उसकी उपासना तुम करो ॥११॥इस मन्त्र का मिलान करो-अ० ८।१०(२)।६ ॥
टिप्पणी
११−(बृहत्) महत्। आकाशम् (एनम्) परमात्मानम् (अनु) निरन्तरम् (वस्ते) आच्छादयति (पुरस्तात्) अग्रे (रथन्तरम्) अ० ८।१०(२)६। रथै रमणीयपदार्थैस्तरति येन तज्जगत् (प्रति) प्रत्यक्षम् (गृह्णाति) स्वीकरोति (पश्चात्) (ज्योतिः) तेजःस्वरूपं ब्रह्म (वसाने) आच्छादयमाने (सदम्) सदा (अप्रमादम्) प्रमादरहितम्। सावधानम् ॥
विषय
अप्ररमादम् सदम्
पदार्थ
१.[द्यौवै बृहत्-शत० ९.१.२.३७, रथन्तरं हि इयं पृथिवी-शत० १.७.२.१७] (बृहत्) = यह महान् द्युलोक (एनम्) = इस प्रभु को (पुरस्तात्) = सामने से (अनुवस्ते) = आच्छादित करता है और (रथन्तरम्) = यह पृथिवी (पश्चात्) = पीछे से (प्रतिगृह्णाति) = ग्रहण करती है। इसप्रकार (ज्योति:) = ज्योर्तिमय प्रभु को (वसाते) = वस्त्र के समान आच्छादित करते हुए ये द्यावापृथिवी (अप्रमादम्) = प्रमादशून्य (सदम्) = गृह के समान हैं। इसप्रकार प्रभु की ज्योति को दिखलानेवाले द्यावापृथिवी को जो एक उत्तम गृह के रूप में देखता है, उस ब्रह्मज्ञानी का हनन प्रभु के प्रति एक महान् अपराध है। शेष पूर्ववत्।
भावार्थ
धुलोक ने प्रभु को आगे से धारण किया हुआ है, पृथिवी ने पीछे से। एवं, यह संसार-गृह प्रभु की ज्योति से परिपूर्ण है। इस रूप में संसार को देखनेवाले ब्रह्मज्ञानी का हनन महापाप है।
भाषार्थ
(पुरस्तात्) पहिले (बृहत्) बड़ा द्युलोक (एनम्) इस परमेश्वर को (अनु) अनुकूल तथा (वस्ते) वस्त्ररूप में धारण करता है, (पश्चात्) पीछे अर्थात् तदनन्तर (रथन्तरम्) रथों द्वारा मानो तैरने योग्य, मार्ग तय करने योग्य पृथिवी लोक (प्रति गृह्णाति) इसे अनुकूल या वस्त्र रूप में ग्रहण करता है। ये दोनों (सदम्) सदा (अप्रमादम्) विना प्रमाद किये (ज्योतिः) ज्योतिस्वरूप परमेश्वर को (वसाने) वस्त्र रूप में धारण किये रहते हैं। (तस्य देवस्य......पाशान्) पूर्ववत् (मन्त्र १)।
टिप्पणी
[सृष्ट्युत्पत्ति में पहिले द्युलोक हुआ, पश्चात् पृथिवी लोक। इस लिये द्युलोक ने स्व-रक्षार्थ परमेश्वर को वस्त्र रूप में पहिले धारण किया। पृथिवी लोक पीछे पैदा हुआ, इस लिये इस ने तत्पश्चात् परमेश्वर को वस्त्ररूप में धारण किया। वस्त्र धारण शरीर रक्षार्थ होता है। परमेश्वर वस्त्ररूप में इन दोनों लोकों की रक्षा कर रहा है।]।
विषय
रोहित, आत्मा ज्ञानवान् राजा और परमात्मा का वर्णन।
भावार्थ
(एनम् पुरस्तात्) इसको आगे से (बृहत्) ‘बृहत्’ महान्, आकाश (अनुवस्ते) आच्छादित करता है और (पश्चात्) पीछे से (रथन्तरम्) रथन्तर = पृथिवी (प्रतिगृह्णाति) सम्भाले रहती है। दोनों (ज्योतिः) उस ज्योतिःस्वरूप रोहित परमात्मा को (वसाने) वस्त्र के समान धारण या आच्छादित करते हुए (अप्रमादम्) बिना प्रमाद के, सुदृढ़, जगभग (सदम्) मकान के समान बने हैं। (तस्य० इत्यादि) पूर्ववत्।
टिप्पणी
‘यो बृहत्’। श० ९। १। २। ३७॥ रथन्तरं हि इयं पृथिवी। श० १। ७। २। १७॥ अध्यात्म में—प्राणो बृहत्। ता० ७। ६। १४। १७॥ मनो वै बृहत्। ए० ४। २८॥ वाग् वै रथन्तरम्। ता० ७। ६। १७॥ अपानो रथन्तरम्। ता० ७। ६। १४। १७॥ यथा वै पुत्रो ज्येष्ठ एवं वै बृहत् प्रजापतेः। ता० ७। ६। ६॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मम्। रोहित आदित्य देवता। १ चतुरवसानाष्टपदा आकृतिः, २-४ त्र्यवसाना षट्पदा [ २, ३ अष्टिः, २ भुरिक् ४ अति शाक्वरगर्भा धृतिः ], ५-७ चतुरवसाना सप्तपदा [ ५, ६ शाक्वरातिशाक्वरगर्भा प्रकृतिः ७ अनुष्टुप् गर्भाति धृतिः ], ८ त्र्यवसाना षट्पदा अत्यष्ठिः, ६-१९ चतुरवसाना [ ९-१२, १५, १७ सप्तपदा भुरिग् अतिधृतिः १५ निचृत्, १७ कृति:, १३, १४, १६, १९ अष्टपदा, १३, १४ विकृतिः, १६, १८, १९ आकृतिः, १९ भुरिक् ], २०, २२ त्र्यवसाना अष्टपदा अत्यष्टिः, २१, २३-२५ चतुरवसाना अष्टपदा [ २४ सप्तपदाकृतिः, २१ आकृतिः, २३, २५ विकृतिः ]। षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
To the Sun, against Evil Doer
Meaning
First Brhat, vast space, wears the divine vestment of Brahma, then after, the floating stars and planets wear the power and glory of the Supreme power and continue to move with Divinity relentlessly with divine energy through their light and motion. To that presence of Brahma reflected in space, stars and planets, that person is an offensive sinner who violates a Brahmana, the man who knows Brahma in truth. O Rohita, Ruler risen high and self-refulgent, shake up that person, punish him down to naught, extend the arms of law, justice and correction to the Brahmana- violator.
Translation
The brhat Saman clads Him in front and the rathamtara Saman takes hold of Him from behind, always carefully clothed in light - to that enraged Lord it is offending that Some one scathes such a learned intellectual person. O ascending one, make him tremble; destroy him; put your snares upon the harasser of intellectual persons.
Translation
He who........ whom the Brihat Saman covers in the front and the Rathantara grasp from behind and both of them do so ever diligently keeping them mentled in splendor.
Translation
In front the atmosphere holds God as its mouth and from behind the Earth embraces Him. Both these robe themselves in God with fuli care. This God is wroth offended by the sinner who vexes the Brahmin who hath gained this knowledge. Terrify him,.0 King, destroy him, entangle in thy snares the Brahman’s tyrant!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११−(बृहत्) महत्। आकाशम् (एनम्) परमात्मानम् (अनु) निरन्तरम् (वस्ते) आच्छादयति (पुरस्तात्) अग्रे (रथन्तरम्) अ० ८।१०(२)६। रथै रमणीयपदार्थैस्तरति येन तज्जगत् (प्रति) प्रत्यक्षम् (गृह्णाति) स्वीकरोति (पश्चात्) (ज्योतिः) तेजःस्वरूपं ब्रह्म (वसाने) आच्छादयमाने (सदम्) सदा (अप्रमादम्) प्रमादरहितम्। सावधानम् ॥
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