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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 14
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - चतुरवसानाष्टपदा कृतिः सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    68

    स॑हस्रा॒ह्ण्यं विय॑तावस्य प॒क्षौ हरे॑र्हं॒सस्य॒ पत॑तः स्व॒र्गम्। स दे॒वान्त्सर्वा॒नुर॑स्युप॒दद्य॑ सं॒पश्य॑न्याति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒ह॒स्र॒ऽअ॒ह्न्यम् । विऽय॑तौ । अ॒स्य॒ । प॒क्षौ । हरे॑: । हं॒सस्य॑ । पत॑त: । स्व॒:ऽगम् । स: । दे॒वान् । सर्वा॑न । उर॑सि । उ॒प॒ऽदद्य॑ । स॒म्ऽपश्य॑न् । या॒ति॒ । भुव॑नानि । विश्वा॑ । तस्य॑ । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्ष‍ि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न् ॥३.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्राह्ण्यं वियतावस्य पक्षौ हरेर्हंसस्य पततः स्वर्गम्। स देवान्त्सर्वानुरस्युपदद्य संपश्यन्याति भुवनानि विश्वा। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रऽअह्न्यम् । विऽयतौ । अस्य । पक्षौ । हरे: । हंसस्य । पतत: । स्व:ऽगम् । स: । देवान् । सर्वान । उरसि । उपऽदद्य । सम्ऽपश्यन् । याति । भुवनानि । विश्वा । तस्य । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्ष‍िणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान् ॥३.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 3; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (स्वर्गम्) मोक्षसुख को (पततः) प्राप्त होते हुए (अस्य) इस [सर्वत्र वर्तमान] (हरेः) हरि [दुःख हरनेवाले] (हंसस्य) हंस [सर्वव्यापक परमेश्वर] के (पक्षौ) दोनों पक्ष [ग्रहण करने योग्य कार्य और कारण रूप व्यवहार] (सहस्राह्ण्यम्) सहस्रों दिनोंवाले [अनन्त देशकाल] में (वियतौ) फैले हुए हैं। (सः) वह [परमेश्वर] (सर्वान्) सब (देवान्) दिव्यगुणों को [अपने] (उरसि) हृदय में (उपदद्य) लेकर (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकों को (संपश्यन्) निरन्तर देखता हुआ (याति) चलता रहता है। (तस्य) उस (क्रुद्धस्य) क्रुद्ध (देवस्य) प्रकाशमान [ईश्वर] के लिये..... [म० १] ॥१४॥

    भावार्थ

    जैसे परमेश्वर अन्तर्यामी रूप से अनन्त कार्य कारण रूप जगत् की निरन्तर सुधि रखता है, वैसे ही मनुष्य परमेश्वर का विचार करता हुआ सब कामों में सदा सावधान रहे ॥१४॥आवृत्ति, छोड़कर यह मन्त्र आ चुका है-अ० १०।८।१८ तथा १३।२।३८ ॥

    टिप्पणी

    १४-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अथर्व० १०।८।१८। तत्रैव द्रष्टव्यः ॥

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    विषय

    सहस्त्र युगपर्यन्त आरोहण

    पदार्थ

    व्याख्या अथर्व० १३.२.३८ पर द्रष्टव्य है।

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    भाषार्थ

    यह मन्त्र, १३।२।३८ का पुनः कथन है। पूर्वपठित मन्त्र के दो अर्थ किये हैं, (१) आधिदैविक और (२) आध्यात्मिक। इस स्थान में पुनः पाठ केवल आध्यात्मिक अर्थ के लिये है। मन्त्र का दण्डान्वयरूप में अर्थ निम्नरूप है- "स्वर्ग की ओर उड़ते हुए प्रलयकाल में सृष्टि का हरण करने वाले इस हंस अर्थात् सृष्टिकाल में अज्ञानान्धकार के हन्ता तथा ज्ञानप्रकाश के दाता परमेश्वर के, दो पक्ष अर्थात् ब्राह्मदिन और ब्राह्मी रात्रि, हजारों ब्राह्मदिनों की व्याप्ति तक प्रयत्नशील रहते हैं। वह परमेश्वर सब देवों अर्थात् नक्षत्रों, ताराओं, तीनों लोकों आदि को अपनी छाती में मानों रख कर, उन्हें अपनी छाती का सहारा देता हुआ, और सम्यक्-निरीक्षण करता हुआ सब भूवनों तक जाता है। उस क्रुद्ध देव के लिये वह अपराधी है जो कि इस प्रकार के विद्वान् ब्रह्मवेत्ता और वेदवेत्ता को हानि पहुंचाता है। हे सिंहासनारूढ़ राजन् ! ऐसे व्यक्ति को कम्पा, ऐसे का क्षय कर, ब्रह्मवेत्ता और वेदवेत्ता को हानि पहुंचाने वाले पर फन्दे डाल”।

    टिप्पणी

    [मन्त्र १४ का पुनः कथन यह जताने के लिये किया गया है कि सृष्टि का कर्त्ता और अपहर्ता जिस पर कुपित हो जाय तो वह इस के कोप से बच नहीं सकता। ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ विद्वान् को हानि पहुंचाना उस के लिए अपराध है। इस लिये इस अपराध से बचे रहना चाहिये। मन्त्रार्थ (१३।३।१४, तथा १३।३।१) के आधार पर किया है।

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    विषय

    रोहित, आत्मा ज्ञानवान् राजा और परमात्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो अथर्व० १० ८। १८॥ और १३। २। ३८॥ में।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मम्। रोहित आदित्य देवता। १ चतुरवसानाष्टपदा आकृतिः, २-४ त्र्यवसाना षट्पदा [ २, ३ अष्टिः, २ भुरिक् ४ अति शाक्वरगर्भा धृतिः ], ५-७ चतुरवसाना सप्तपदा [ ५, ६ शाक्वरातिशाक्वरगर्भा प्रकृतिः ७ अनुष्टुप् गर्भाति धृतिः ], ८ त्र्यवसाना षट्पदा अत्यष्ठिः, ६-१९ चतुरवसाना [ ९-१२, १५, १७ सप्तपदा भुरिग् अतिधृतिः १५ निचृत्, १७ कृति:, १३, १४, १६, १९ अष्टपदा, १३, १४ विकृतिः, १६, १८, १९ आकृतिः, १९ भुरिक् ], २०, २२ त्र्यवसाना अष्टपदा अत्यष्टिः, २१, २३-२५ चतुरवसाना अष्टपदा [ २४ सप्तपदाकृतिः, २१ आकृतिः, २३, २५ विकृतिः ]। षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    To the Sun, against Evil Doer

    Meaning

    Over a thousand days of Divinities, each day equal to the four yugas of 4,320000 (four million, three hundred and twenty thousand) years, are spread the wings of the will and action of the cosmic Sun, saviour spirit and redeemer from the oppressions of life, the heavenly Bird which flies over and beyond the borders of time and space on the path of eternal freedom. Having taken over all divine forces of nature and humanity unto its heart, watching over all worlds of existence, it flies on and on. To this over-presiding Power of the universe, that person is an offensive sinner who violates a Brahmana, the man who knows Brahma in truth. O Rohita, Ruler risen high over the world, shake up that person, punish him down to naught, extend the snares of law, justice and punishment to the Brahmana- violator.

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    Translation

    A thousand day’s journey are expanded the wings of him, of the yellow swan flying to heaven: he, putting all the gods in his breast, goes viewing together all existences -- to that wrathful (enraged) Lord it is offending that some one seathes such a learned intellectual person. O ascending one, make him tremble, destroy him; put your Snares upon the harasser of intellectual persons.

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    Translation

    He who.......(of whose sun who takes away vapors from earth (Hari), who brings to us the year (Svargah), these two Paksha Brihad, the heaven, Rathantara, the earth are spreaded over till the Sahasrahnyam, one thousand Chaturyugi (1. e. 4320000000 years) and He himself supporting all illuminating and illuminated elements Unto Hari, beholding all the worlds make them move.

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    Translation

    Both the wings of this Omniscient God are specially defined, as is the path of the Sun who moves through the atmosphere in thousands of days and ages. Controlling all the forces of Nature, beholding the actions of all creatures, He goes on administering the universe. This God is wroth offended by the sinner who vexes the Brahman who hath gained this knowledge. Terrify him, O King, destroy him, entangle in thy snares the Brahman’s tyrant!

    Footnote

    See Atharva, 10-8, 18, 13-2-38. Two wings: Day and Night.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४-अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अथर्व० १०।८।१८। तत्रैव द्रष्टव्यः ॥

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