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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 5
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - शाक्वरातिशाक्वरगर्भा सप्तपदा चतुरवसाना प्रकृतिः सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    74

    यस्मि॑न्वि॒राट्प॑रमे॒ष्ठी प्र॒जाप॑तिर॒ग्निर्वै॑श्वान॒रः स॒ह प॒ङ्क्त्या श्रि॒तः। यः पर॑स्य प्रा॒णं प॑र॒मस्य॒ तेज॑ आद॒दे। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मि॑न् । वि॒ऽराट् । प॒र॒मे॒ऽस्थी । प्र॒जाऽप॑ति: । अ॒ग्नि: । वै॒श्वा॒न॒र: । स॒ह । प॒ङ्क्त्या । श्रि॒त: । य: । पर॑स्य । प्रा॒णम् । प॒र॒मस्य॑ । तेज॑: । आ॒ऽद॒दे । तस्य॑ । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्ष‍ि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न् ॥३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्मिन्विराट्परमेष्ठी प्रजापतिरग्निर्वैश्वानरः सह पङ्क्त्या श्रितः। यः परस्य प्राणं परमस्य तेज आददे। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मिन् । विऽराट् । परमेऽस्थी । प्रजाऽपति: । अग्नि: । वैश्वानर: । सह । पङ्क्त्या । श्रित: । य: । परस्य । प्राणम् । परमस्य । तेज: । आऽददे । तस्य । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्ष‍िणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान् ॥३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (यस्मिन्) जिस [परमेश्वर] में (विराट्) विविध प्रकाशमान (परमेष्ठी) बड़ी स्थितिवाला [आकाश], (प्रजापतिः) प्रजापालक [सूर्य] और (वैश्वानरः) सब नायकों [रस ले चलनेवाली नाड़ी आदिकों] का हितकारी (अग्निः) अग्नि [जाठर अग्नि] (पङ्क्त्या सह) अपनी पङ्क्ति [श्रोणि] के सहित (श्रितः) ठहरा है, (यः) जिस [परमेश्वर] ने (परस्य) दूर पदार्थ के (प्राणम्) प्राण को और (परमस्य) सबसे ऊँचे पदार्थ के (तेजः) तेज को (आददे) अपने में ग्रहण किया है। (तस्य) उस (क्रुद्धस्य) क्रुद्ध (देवस्य) प्रकाशमान [ईश्वर] के लिये.... [म० १] ॥५॥

    भावार्थ

    मन्त्र १ के समान ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(यस्मिन्) परमेश्वरे (विराट्) विविधं राजमानः (परमेष्ठी) परमस्थितिमान्। आकाशः (प्रजापतिः) प्रजापालकः सूर्यः (अग्निः) जाठराग्निः (वैश्वानरः) सर्वेषां नराणां नायकानां रसवाहकनाड्यादिकानां हितः (सह) (पङ्क्त्या) श्रेण्या (श्रितः) स्थितः (यः) परमेश्वरः (परस्य) दूरस्थपदार्थस्य (प्राणम्) जीवनम् (परमस्य) उच्चतमपदार्थस्य (तेजः) प्रकाशम् (आददे) स्वस्मिन् गृहीतवान् ॥

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    विषय

    'विराट' आदि का आधार 'प्रभु'

    पदार्थ

    १. (यस्मिन्) = जिस प्रभु में विराट [इयं पृथिवी विराट-गो-उ०६.२] यह पृथिवी, परमेष्ठी [आपो वै प्रजापतिः परमेष्ठी ता हि परमे स्थाने तिष्ठन्ति-शत०८.२.३.१३] प्रजा के रक्षक ये परम स्थान में विस्तृत होकर वृष्ट होनेवाले जल, (अग्नि:) = अग्नि, (प्रजापति:) = [एतद् वै प्रजापते: प्रत्यक्ष रूपं यद् वायु:-कौ० १९.२] वायु (वैश्वनर:) = आकाश [एष वै बहुलो वैश्वनरो यदाकाश: शत०१०.६.१.६] (पङ्क्तया सह) = पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राणों के साथ होनेवाला जीव (शृतः) = आश्रित है। २. (परस्य प्राणम्) = परा प्रकृतिरूप जीव के प्राण को [इतरस्त्वन्या प्रवृति विद्धि में परां जीवभूताम्] तथा (परमस्य तेजः) = परम स्थान में स्थित सूर्य के तेज को (आददे) = स्वयं ग्रहण करता है। उस प्रभु के प्रति यह अपराध है कि जो ब्रह्मज्ञानी को हिंसित करता है। शेष पूर्ववत्।

     

    भावार्थ

    वह प्रभु 'पृथिवी, जल, वायु, अग्नि, आकाश व जीवों' का आश्रय है। वही जीव के प्राणों व सूर्य के तेज को ग्रहण करता है। इसप्रकार के ब्रह्म के ज्ञाता का हिंसन करना पाप है।

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    भाषार्थ

    (यस्मिन्) जिस परमेश्वर में (परमेष्ठी) परमोच्च स्थान-द्युलोक में स्थित (विराट्) विशेषतया प्रदीप्त सूर्य, (प्रजापतिः) तथा वर्षा और प्राण देकर प्रजा की रक्षा करने वाली वायु, (वैश्वानरः अग्निः) और पाककर्म के द्वारा सब नर-नारियों का हितकारी पार्थिव अग्नि, (पङ्क्त्या सह) अपनी-अपनी पंक्तियों के साथ (श्रितः) आश्रित हैं, (यः) जो परमेश्वर (परस्य) दूरस्थ सूर्य के, तथा (परमस्य) उस से भी परम अर्थात् दूरस्थ द्युलोक के (प्राणं तेजः) तेजरूपी प्राण को (आददे) प्रलयकाल में छीन लेता है। (तस्य देवस्य.......पाशान्) पूर्ववत् (मन्त्र १)

    टिप्पणी

    [तीन लोकों के तीन देवता हैं, (१) परमेष्ठी विराट् = सूर्य, (२) प्रजापति = वायु, (३) पार्थिवाग्नि। पंक्त्या = पार्थिवाग्नि, वायु और सूर्य, में से प्रत्येक के "भक्ति सहचारी" गणों का निर्देश निरुक्त में दैवत-प्रकरण में किया है। उदाहरणार्थ "अथैतान्यग्निभक्तिनि, अयं लोकः, प्रातःसवनं, वसन्तो गायत्री, त्रिवृत् स्तोमो, रथन्तरम् साम, ये च देवगणाः समाम्नाताः प्रथमे स्थानेऽग्नायी, पृथिवीळेति स्त्रियः। इत्यादि (निरुक्त ७।३।८)। इसी प्रकार शेष दो देवताओं के "भक्ति सहचारी" गण भी दर्शाएं हैं। ये हैं तीन निर्दिष्ट देवताओं की पंक्तियां। ये सब परमेश्वराश्रय में स्थित है। परस्य= इस द्वारा सूर्य का कथन हुआ है। इस के प्राणभूत तेज को परमेश्वर हर लेता है। इस से प्रतीत होता है कि इन मन्त्रों में मुख्य वर्णन परमेश्वर का है, सूर्य का नहीं। विराट् = वि + राजृ (दीप्तौ)। परमस्य = परमपद द्युलोक वाची प्रतीत होता है। अतः परमेष्ठी पद, "परमे द्युलोके तिष्ठति" इस अर्थ में, सूर्य में सूपपन्न है]। श्रितः = श्रि + क्विप् + तुक् (बहुवचन)।

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    विषय

    रोहित, आत्मा ज्ञानवान् राजा और परमात्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    (यस्मिन्) जिस सर्वाश्रय परमात्मा में (विराट्) विराट् पृथिवी, (परमेष्ठी) परमेष्ठी, आपः (प्रजापतिः) प्रजापति, वायु (अग्नि) अग्नि (वैश्वानरः) समस्त प्राणियों में व्यापक आकाश और आत्मा (सह पङ्क्त्या) अपने पांचों ज्ञानेन्द्रियों के विषयों सहित (श्रितः) आश्रित है। और (यः) जो (परस्य) घर दूरस्य भुवन के (प्राणम्) प्राण और (परमस्य) परम सर्वोच्च सूर्य के भी (तेजः) तेज को (आददे) स्वयं धारण करता हैं (तस्य०) उस० इत्यादि पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    इयं पृथिवी विराट्। गो० उ० ६। २। आपो वै प्रजापतिः परमेष्ठी ता हि परमे स्थाने निष्ठन्ति। श० ८। २। ३। १३॥ स आपोऽभवत्। परमाद्वा एतत्स्थानाद् वर्षति यद् दिवरतत्परमेष्ठी नाम। श० ११। १। १६॥ एतद वै प्रजापतेः प्रत्यक्षं रूपं यद् वायुः। कौ० १९। २॥ स एषवायुः प्रजापतिः त्रैष्टुभेऽन्तरिक्षे समन्तं पर्यक्तः। श० ८। ३। ४। १५॥ एष वै बहुलो वैश्वानरो यदाकाशः। श० १०। ६। १। ६॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मम्। रोहित आदित्य देवता। १ चतुरवसानाष्टपदा आकृतिः, २-४ त्र्यवसाना षट्पदा [ २, ३ अष्टिः, २ भुरिक् ४ अति शाक्वरगर्भा धृतिः ], ५-७ चतुरवसाना सप्तपदा [ ५, ६ शाक्वरातिशाक्वरगर्भा प्रकृतिः ७ अनुष्टुप् गर्भाति धृतिः ], ८ त्र्यवसाना षट्पदा अत्यष्ठिः, ६-१९ चतुरवसाना [ ९-१२, १५, १७ सप्तपदा भुरिग् अतिधृतिः १५ निचृत्, १७ कृति:, १३, १४, १६, १९ अष्टपदा, १३, १४ विकृतिः, १६, १८, १९ आकृतिः, १९ भुरिक् ], २०, २२ त्र्यवसाना अष्टपदा अत्यष्टिः, २१, २३-२५ चतुरवसाना अष्टपदा [ २४ सप्तपदाकृतिः, २१ आकृतिः, २३, २५ विकृतिः ]। षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    To the Sun, against Evil Doer

    Meaning

    In whom the Supreme Parameshthi of the regions of light, Prajapati, life giving air of the middle region and the earthly fire version of universal energy, all with their expansive but defined functions, repose, and who withdraws the life energy of far off things and the splendour of highest realities at the end, to that Lord Supreme, that person is an offensive sinner who violates a Brahmana who knows Brahma in truth. O Rohita, high risen Ruler, shake up that person, punish him down to naught, extend the arms of justice and correction to the Brahmana-violator.

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    Translation

    He, within whom Viraj (the lumiscent), the Lord dwelling in the highest abode, the Lord of creatures, and the adorable Lord, benefactor of all men, has found shelter with the pankti metre; He, who takes to Himself the vital breath of the highest and the radiance of the supreme -- to that wrathful (enraged) Lord it is offending that, some one scathes such a learned intellectual person. O ascending one, make him tremble; destroy him; put your snares upon the harasser of intellectual persons.

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    Translation

    He who.......In whom abide with Pankti (in conjunction) Virat, the earth; Prajapati, the wind; Parmesthin, the space; the fire (vaishvanara) and who takes unto him the life distant body and the vigorous light of great sun.

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    Translation

    In Whom the Earth, Water, Air, Fire, Atmosphere abide with the attributes of the organs of cognition. He Who hath taken under Him the breathing of distant humanity and the lustre of the Sun, this God is wroth offended by the sinner who vaxes the Brahman who hath gained this knowledge. Terrify him, O King, destroy him, entangle in thy snares the Brahman’s tyrant.

    Footnote

    Organs of cognition: Ear, Nose, Eye, Tongue, Skin,. Attributes: Hearing,ISmell, Sight, Taste, Touch

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(यस्मिन्) परमेश्वरे (विराट्) विविधं राजमानः (परमेष्ठी) परमस्थितिमान्। आकाशः (प्रजापतिः) प्रजापालकः सूर्यः (अग्निः) जाठराग्निः (वैश्वानरः) सर्वेषां नराणां नायकानां रसवाहकनाड्यादिकानां हितः (सह) (पङ्क्त्या) श्रेण्या (श्रितः) स्थितः (यः) परमेश्वरः (परस्य) दूरस्थपदार्थस्य (प्राणम्) जीवनम् (परमस्य) उच्चतमपदार्थस्य (तेजः) प्रकाशम् (आददे) स्वस्मिन् गृहीतवान् ॥

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