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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 6
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - शाक्वरातिशाक्वरगर्भा सप्तपदा चतुरवसाना प्रकृतिः सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    67

    यस्मि॒न्षडु॒र्वीः पञ्च॒ दिशो॒ अधि॑श्रि॒ताश्चत॑स्र॒ आपो॑ य॒ज्ञस्य॒ त्रयो॒ऽक्षराः॑। यो अ॑न्त॒रा रोद॑सी क्रु॒द्धश्चक्षु॒षैक्ष॑त। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मि॑न् । षट् । उ॒र्वी: । पञ्च॑ । दिश॑: । अधि॑ । श्रि॒ता: । चत॑स्र: । आप॑: । य॒ज्ञस्य॑ । त्रय॑: । अ॒क्षरा॑: । य: । अ॒न्त॒रा । रोद॑सी॒ इति॑ । क्रु॒ध्द: । चक्षु॑षा । ऐक्ष॑त । तस्य॑ । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्ष‍ि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न् ॥३.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्मिन्षडुर्वीः पञ्च दिशो अधिश्रिताश्चतस्र आपो यज्ञस्य त्रयोऽक्षराः। यो अन्तरा रोदसी क्रुद्धश्चक्षुषैक्षत। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मिन् । षट् । उर्वी: । पञ्च । दिश: । अधि । श्रिता: । चतस्र: । आप: । यज्ञस्य । त्रय: । अक्षरा: । य: । अन्तरा । रोदसी इति । क्रुध्द: । चक्षुषा । ऐक्षत । तस्य । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्ष‍िणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान् ॥३.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (यस्मिन्) जिस [परमेश्वर] में (षट्) छह [पूर्वादि चार और नीचे ऊपरवाली] (उर्वीः) चौड़ी (दिशः) दिशाएँ (पञ्च) पाँच [पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश पाँच तत्त्वों] के सहित, (चतस्रः) चार प्रकार की [ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्ररूप] (आपः) प्रजाएँ और (यज्ञस्य) [संयोग-वियोगवाले संसार] के (त्रयः) तीनों [सत्त्व, रज, तम] (अक्षराः) व्यापक गुण (अधि) यथावत् (श्रिताः) ठहरे हैं। (यः) जिसने (क्रुद्धः) क्रुद्ध होकर (रोदसी अन्तरा) दोनों सूर्य और भूमि [प्रकाशमान और अप्रकाशमान लोकों] के बीच (चक्षुषा) अपने नेत्र से (ऐक्षत्) देखा है [वश में किया है]। (तस्य) उस (क्रुद्धस्य) क्रुद्ध (देवस्य) प्रकाशमान [ईश्वर] के लिये.... [म० १] ॥६॥

    भावार्थ

    मन्त्र १ के समान ॥६॥इस मन्त्र के गणिताङ्कों में छह से लेकर दो तक एक-एक घटता गया है ॥

    टिप्पणी

    ६−(यस्मिन्) परमेश्वरे (षट्) ऊर्ध्वाधोभ्यां सह पूर्वादयः (उर्वीः) विस्तृताः (पञ्च) विभक्तिलोपः। पञ्चभिः पृथिव्यादिभूतैः (दिशः) दिशाः (अधि) यथावत् (श्रिताः) स्थिताः (चतस्रः) (आपः) ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्ररूपाः प्रजाः (यज्ञस्य) संयोगवियोगवतः संसारस्य (त्रयः) (अक्षराः) अशेः सरः। उ० ३।७०। अशू व्याप्तौ-सर। सत्त्वरजस्तमोरूपा व्यापका गुणाः (अन्तरा) मध्ये (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (क्रुद्धः) कुपितः सन् (चक्षुषा) दृष्ट्या (ऐक्षत) अपश्यत् ॥

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    विषय

    सर्वाधार प्रभु

    पदार्थ

    १. (यस्मिन्) = जिस प्रभु में षट् (उर्वीः) = ये छह विशाल (पञ्च दिशा:) = [तवेमे पञ्च पशवः गौरश्वः पुरुषोऽजावयः] पाँच पशुओं सहित दिशाएँ (अधिश्रिता:) = आश्रित हैं। इसीप्रकार (चतस्त्रः आपः) = 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र'रूप चारों प्रजाएँ [आपो नारा इति प्रोक्ताः], (यज्ञस्य त्रयः अक्षरा:) = यज्ञ के तीनों अक्षर उस पूज्य प्रभु के वाचक तीन 'अ उम्' रूप अक्षर [तस्य वाचकः प्रणवः, 'ओंकारखणवी समौ] भी जिसमें आश्रित हैं। २. (य:) = जो ये (रोदसी अन्तरा) = इन द्यावापृथिवी के बीच में (कुद्धः) = पापियों के प्रति कुद्ध हुआ-हुआ (चक्षुषा) = सूर्यरूप आँख से (ऐक्षत) = देखता है [चक्षुषी चन्द्रसूर्यो]। उस परमात्मा के प्रति यह पाप है कि इसप्रकार के ब्रह्मज्ञानी की हत्या करना। शेष पूर्ववत्।

    भावार्थ

    प्रभु ही विशाल दिशाओं को, उनमें स्थित 'गौ, अश्व, पुरुष, अजा, अवि' इन पाँच पशओं को, 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शुद्ध' रूप चार प्रजाओं को, 'अ उ म्' इन तीनों अक्षरों को धारण करते हैं, वे ही सूर्यरूप आँख द्वारा पापियों पर क्रोधदृष्टि करते हैं। इस प्रभु के ज्ञाता ज्ञानी ब्राह्मण का आदर ही करना चाहिए, न कि हत्या।

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    भाषार्थ

    (यस्मिन् अधि) जिस में (षट् उर्वीः) ६ पृथिवियां (पञ्च दिशः) विस्तृत दिशाएँ (श्रिताः) आश्रित हैं, तथा (यज्ञस्य) संसार यज्ञ के (त्रयः अक्षराः) तीन अनश्वर अर्थात् तीन लोक, और (चतस्रः आपः) चार जलीय समुद्र आश्रित है। (यः) जो (क्रुद्धः) मानो क्रुद्ध होकर (रोदसी अन्तरा) द्यौः और पृथिवी के अन्तराल में (चक्षुषा) सूर्य रूपी चक्षु द्वारा (ऐक्षत) देखता है। (तस्य देवस्य.......पाशान्), पूर्ववत् (१)

    टिप्पणी

    [षट् उर्वीः = बुध, शुक्र, पृथिवी, मंगल, बृहस्पति, शनि। चतस्रः आपः = पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण के चार जलीय समुद्र। पञ्च= पचि विस्तारे। चक्षुः = सूर्य। यथा "तच् चक्षुर्देवहितं पुरस्तात् छक्रमुच्चरत्" तथा "चक्षोः सूर्योऽअजायत" (यजु० ३१।१२)। कल्पान्त काल तक स्थिर, अतः अनश्वर तीन लोक]।

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    विषय

    रोहित, आत्मा ज्ञानवान् राजा और परमात्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    (यस्मिन्) जिस में (षट् उर्वीः) छहों विशाल दिशाएं और (चतस्रः) चार (आपः) आपः = आप्त प्रजाएं और (यज्ञस्य) यज्ञ देवोपासन के निदर्शक (त्रयः) तीन (अक्षराः) अक्षरविनाशी वेद (श्रिताः) आश्रय लिये हुए हैं। और (यः) जो (रोदसी अन्तरा) आकाश और भूमि के बीच में (क्रुद्धः) अति क्रोधयुक्त, दुष्टों के प्रति सदा कोपकारी होकर (चक्षुषा) अपने प्रकाशमान सूर्य रूप चक्षु से मानो निरन्तर (ऐक्षत) देखा करता है (तस्य०) इत्यादि पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मम्। रोहित आदित्य देवता। १ चतुरवसानाष्टपदा आकृतिः, २-४ त्र्यवसाना षट्पदा [ २, ३ अष्टिः, २ भुरिक् ४ अति शाक्वरगर्भा धृतिः ], ५-७ चतुरवसाना सप्तपदा [ ५, ६ शाक्वरातिशाक्वरगर्भा प्रकृतिः ७ अनुष्टुप् गर्भाति धृतिः ], ८ त्र्यवसाना षट्पदा अत्यष्ठिः, ६-१९ चतुरवसाना [ ९-१२, १५, १७ सप्तपदा भुरिग् अतिधृतिः १५ निचृत्, १७ कृति:, १३, १४, १६, १९ अष्टपदा, १३, १४ विकृतिः, १६, १८, १९ आकृतिः, १९ भुरिक् ], २०, २२ त्र्यवसाना अष्टपदा अत्यष्टिः, २१, २३-२५ चतुरवसाना अष्टपदा [ २४ सप्तपदाकृतिः, २१ आकृतिः, २३, २५ विकृतिः ]। षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    To the Sun, against Evil Doer

    Meaning

    In whom, six wide directions of space, five elements of Prakrti, all four classes of humanity and four versions of human action, three vyahrtis of yajna and three syllables of AUM abide, who with awful eye watches everything between heaven and earth, to that Lord Supreme, that person is an offensive sinner who violates a Brahmana who knows Brahma in truth. O Rohita, high risen Ruler, shake up that person, punish him down to naught, extend the arms of law, justice and correction to the Brahmana-violator.

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    Translation

    He, in whom the six vast (mid-quarters), the five quarters, the four waters and the three syllables of yajna (the sacrifice) have found shelter; who, being, enraged, looks through heaven and earth with his vision -- to that wrathful (enraged) Lord it is offending that some one scathes such a lerned intellectual person. O ascending one, make him tremble; destroy him; put your snares upon the harasser of intellectual persons.

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    Translation

    He who.......in whom abide the five and six broad regions, in whom abide four subjects and three syllables of Yajna (Aum) and who dreadful (for offenders) sees between heaven and earth His eye.

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    Translation

    On Whom rest six wide regions, five great primary elements, four subjects, three syllables of worship. He Who hath looked on the sinners between heaven and earth in anger, this God is wroth offended by the sinner who vexes the Brahman who hath gained this knowledge. Terrify him, O King, destroy him, entangle in thy snares the Brahman’s tyrant

    Footnote

    Six regions: North, South, East, West, Nadir, Zenith. Five elements: Panch Bhutas, Earth, Water, Air, Fire, Atmosphere. Four subjects; Brahman, Kshatriya,, Vaisha, Shudra, Three syllables, अ, उ, म

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(यस्मिन्) परमेश्वरे (षट्) ऊर्ध्वाधोभ्यां सह पूर्वादयः (उर्वीः) विस्तृताः (पञ्च) विभक्तिलोपः। पञ्चभिः पृथिव्यादिभूतैः (दिशः) दिशाः (अधि) यथावत् (श्रिताः) स्थिताः (चतस्रः) (आपः) ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्ररूपाः प्रजाः (यज्ञस्य) संयोगवियोगवतः संसारस्य (त्रयः) (अक्षराः) अशेः सरः। उ० ३।७०। अशू व्याप्तौ-सर। सत्त्वरजस्तमोरूपा व्यापका गुणाः (अन्तरा) मध्ये (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (क्रुद्धः) कुपितः सन् (चक्षुषा) दृष्ट्या (ऐक्षत) अपश्यत् ॥

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