अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 15
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम्
छन्दः - चतुरवसाना सप्तपदा निचृदतिधृतिः
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
72
अ॒यं स दे॒वो अ॒प्स्वन्तः स॒हस्र॑मूलः पुरु॒शाको॒ अत्त्रिः॑। य इ॒दं विश्वं॒ भुव॑नं॒ जजा॑न। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । स: । दे॒व: । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । स॒हस्र॑ऽमूल: । पु॒रु॒ऽशाक॑: । अत्त्रि॑: । य: । इ॒दम् । विश्व॑म् । भुव॑नम् । ज॒जान॑ । तस्य॑ । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्षि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न् । ॥३.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं स देवो अप्स्वन्तः सहस्रमूलः पुरुशाको अत्त्रिः। य इदं विश्वं भुवनं जजान। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । स: । देव: । अप्ऽसु । अन्त: । सहस्रऽमूल: । पुरुऽशाक: । अत्त्रि: । य: । इदम् । विश्वम् । भुवनम् । जजान । तस्य । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्षिणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान् । ॥३.१५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा और जीवात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(अयम्) यह (सः) वही (देवः) प्रकाशमान, (सहस्रमूलः) सहस्रों [अनगणित] कारणों में रहनेवाला, (पुरुशाकः) बहुत शक्तियोंवाला (अत्त्रिः) नित्यज्ञानी [परमेश्वर] (अप्सु) प्रजाओं में (अन्तः) भीतर है। (यः) जिस ने (इदम्) इस (विश्वम्) सब (भुवनस्य) सत्ता को (जजान) उत्पन्न किया है। (तस्य) उस (क्रुद्धस्य) क्रुद्ध (देवस्य) प्रकाशमान [ईश्वर] के लिये.... [मन्त्र १] ॥१५॥
भावार्थ
विद्वान् लोग सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, सर्वजनक परमात्मा को प्रत्येक कारण में आदि कारण खोजकर उसकी भक्ति करें ॥१५॥
टिप्पणी
१५−(अयम्) प्रत्यक्षः (सः) (देवः) प्रकाशमानः (अप्सु) प्रजासु (अन्तः) मध्ये (सहस्रमूलः) सहस्रेष्वसंख्यातेषु मूलेषु कारणेषु विद्यमानः (पुरुशाकः) शक्लृ शक्तौ-घञ्। बहुशक्तियुक्तः (अत्त्रिः) अ० १३।२।४। नित्यज्ञानी परमेश्वरः (यः) परमेश्वरः (इदम्) दृश्यमानम् (विश्वम्) सर्वम् (भुवनम्) सत्ताम् (जजान) उत्पादयामास ॥
विषय
पुरुशाकः अत्रि
पदार्थ
१. (अयं सः देव:) = यह वह प्रकाशमय प्रभु हैं, (यः) = जो (इदं विश्व भुवनम्) = इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को (जजान) = उत्पन्न करते हैं। ये प्रभु (अप्सु अन्त:) = सब प्रजाओं के हृदयों में निवास करते हैं। ये प्रभु (सहस्त्रमूल:) = इन सहनों लोकों के मूल हैं। (पुरुशाक:) = महान् शक्तिवाले हैं। (अत्रिः) = [अ-त्रि] त्रिगुणातीत हैं अथवा [अदनात्] प्रलयकाल आने पर सब लोकों को स्वयं लील जानेवाले हैं। २. प्रभु ही ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करते हैं, अपनी अनन्त शक्ति से वे ही इसका धारण करते हैं और अन्त में इसका अपने में लय कर लेते हैं [जन्माद्यस्य यतः]। इसप्रकार ब्रह्म को देखनेवाले ज्ञानी का हनन प्रभु के प्रति महान् पाप है। शेष पूर्ववत्।
भावार्थ
प्रभु जगत्स्स्रष्टा हैं, सहस्रों लोकों के आधार हैं, वे अनन्त शक्तिवाले प्रभु संसार को अन्तत: अपने में लीन कर लेते हैं। ये प्रभु ही सब प्रजाओं के हृदयों में निवास करते हैं। प्रभु के ज्ञाता ब्रह्मज्ञानी का हनन प्रभु के प्रति महान् पाप है।
भाषार्थ
(अयं सः देवः) यह वह देव जो कि (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर है, (सहस्रमूलः) हजारों का मूलकारण है, (पुरुशाकः) महाशक्तिशाली है, (अत्त्रिः) प्रलय में संसार का अदन अर्थात् भक्षण करता है। और सृष्टि काल में त्राण (यः) जिसने (इदं विश्वं भुवनम्) यह सब भुवन को (जजान) पैदा किया है। (तस्य देवस्य..........पाशान्) पूर्ववत् (मन्त्र १)।
टिप्पणी
[अत्त्रिः पद स्पष्टरूप में परमेश्वर-वाचक है। इसे अन्नाद भी कहा है (मन्त्र ७), वेदान्त में इसे अत्ता कहा है, "अत्ता चराचरग्रहणात्" (१।२।९)। अप्सु = सामुद्रिक जलों में तथा हृदय के रक्तरूपी जलों में (अथर्व० १०।२।११), तथा विस्तृत अन्तरिक्ष में (निघं० २।३) आपः= आप्लृ व्याप्तौ, व्याप्त अन्तरिक्ष]।
विषय
रोहित, आत्मा ज्ञानवान् राजा और परमात्मा का वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो (इदम्) इस (विश्वम्) समस्त (भुवनम्) संसार, लोक को (जजान) उत्पन्न करता है (अयं सः देवः) वह देव यह है जो (अप्सु अन्तः) समस्त प्रजाओं, लोकों और प्रकृति के मूल परमाणुओं के भीतर व्यापक और (सहस्रमूलः) सहस्रों ब्रह्माण्डों या समस्त जगत् का मूल आधार या मूल कारण (पुरुशाकः) महान् शक्तिशाली और (अत्रिः) इसको प्रलयकाल में स्वयं लीलने वाला है। जन्माद्यस्य यतः॥ वेदान्त सूत्र १। १। २॥ (तस्य०) इत्यादि पूर्ववत्।
टिप्पणी
‘पुरुशाखः’ इति हेनरिकामितः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मम्। रोहित आदित्य देवता। १ चतुरवसानाष्टपदा आकृतिः, २-४ त्र्यवसाना षट्पदा [ २, ३ अष्टिः, २ भुरिक् ४ अति शाक्वरगर्भा धृतिः ], ५-७ चतुरवसाना सप्तपदा [ ५, ६ शाक्वरातिशाक्वरगर्भा प्रकृतिः ७ अनुष्टुप् गर्भाति धृतिः ], ८ त्र्यवसाना षट्पदा अत्यष्ठिः, ६-१९ चतुरवसाना [ ९-१२, १५, १७ सप्तपदा भुरिग् अतिधृतिः १५ निचृत्, १७ कृति:, १३, १४, १६, १९ अष्टपदा, १३, १४ विकृतिः, १६, १८, १९ आकृतिः, १९ भुरिक् ], २०, २२ त्र्यवसाना अष्टपदा अत्यष्टिः, २१, २३-२५ चतुरवसाना अष्टपदा [ २४ सप्तपदाकृतिः, २१ आकृतिः, २३, २५ विकृतिः ]। षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
To the Sun, against Evil Doer
Meaning
This Brahma, self manifested Supreme Spirit of the universe, is at the heart of waters and all dynamics of nature and humanity. It is the ultimate root cause of thousands of Prakrti’s forms and variations, infinite in power, creative saviour and promoter during evolution and the ultimate devourer that sucks in unto Itself all that is in existence. To this Lord that generated this entire universe, that person is an offensive sinner who violates a Brahmana, the man who knows Brahma in truth. O Rohita, Ruler on high, shake up that sinner, punish him down to naught, extend the snares of law, justice and retribution to the Brahmana-violator.
Translation
This is the very same Lord dwelling within the waters, having thousand roots and helping in many ways, the consumer (of all), who has created all this existence - to that wrathful (enraged) Lord it is offending that some one scathes such a learned intellectual person. O ascending one, make him tremble; destroy him; put your snares on the harnesser of intellectual persons.
Translation
Who.....who brings into being all this universe who is that paramount power who has many root-causes at His disposal, who is endowed with multifarious forces. who is free from three kinds of pains (Adhyatmik etc.) and who is present in the recess of heart of all the worldly subjects.
Translation
He, Who brought all this world into existence, is the God Who dwells in the midst of His subjects, is the Most Efficient Cause of thousands of worlds, Master of power, and free from physical elemental and spiritual pangs. This God is wroth offended by the sinner who vexes the Brahman who hath gained this knowledge. Terrify him, O King, destroy him, entangle in thy snares the Brahman’s tyrant!
Footnote
Pt. Khem Karan Das Trivedi translates अत्रि as Wise, Intelligent God. Pt. Jaidev Vidyalankara translates the word as God Who devours us all at the time of dissolution, from the root अद to eat
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५−(अयम्) प्रत्यक्षः (सः) (देवः) प्रकाशमानः (अप्सु) प्रजासु (अन्तः) मध्ये (सहस्रमूलः) सहस्रेष्वसंख्यातेषु मूलेषु कारणेषु विद्यमानः (पुरुशाकः) शक्लृ शक्तौ-घञ्। बहुशक्तियुक्तः (अत्त्रिः) अ० १३।२।४। नित्यज्ञानी परमेश्वरः (यः) परमेश्वरः (इदम्) दृश्यमानम् (विश्वम्) सर्वम् (भुवनम्) सत्ताम् (जजान) उत्पादयामास ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal