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अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 25
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - चतुरवसानाष्टपदा विकृतिः सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    63

    एक॑पा॒द्द्विप॑दो॒ भूयो॒ वि च॑क्रमे॒ द्विपा॒त्त्रिपा॑दम॒भ्येति प॒श्चात्। चतु॑ष्पाच्चक्रे॒ द्विप॑दामभिस्व॒रे सं॒पश्य॑न्प॒ङ्क्तिमु॑प॒तिष्ठ॑मानः। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑ऽपात् । द्विऽप॑द: । भूय॑: । वि । च॒क्र॒मे॒ । द्विऽपा॑त् । त्रिऽपा॑दम् । अ॒भि । ए॒ति॒ । प॒श्चात् । चतु॑:ऽपात् । च॒क्रे॒ । द्विऽप॑दाम् । अ॒भि॒ऽस्व॒रे । स॒म्ऽपश्य॑न् । प॒ङ्क्तिम् । उ॒प॒ऽत‍िष्ठ॑मान: । तस्य॑ । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्षि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न् ॥३.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकपाद्द्विपदो भूयो वि चक्रमे द्विपात्त्रिपादमभ्येति पश्चात्। चतुष्पाच्चक्रे द्विपदामभिस्वरे संपश्यन्पङ्क्तिमुपतिष्ठमानः। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकऽपात् । द्विऽपद: । भूय: । वि । चक्रमे । द्विऽपात् । त्रिऽपादम् । अभि । एति । पश्चात् । चतु:ऽपात् । चक्रे । द्विऽपदाम् । अभिऽस्वरे । सम्ऽपश्यन् । पङ्क्तिम् । उपऽत‍िष्ठमान: । तस्य । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्षिणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान् ॥३.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 3; मन्त्र » 25
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (एकपात्) एकरस व्यापक परमेश्वर (द्विपदः) दो प्रकार की स्थितिवाले [जङ्गम स्थावर जगत्] से (भूयः) अधिक आगे (वि) फैल कर (चक्रमे) चला गया, (द्विपात्) दो [भूत भविष्यत्] में गतिवाला परमात्मा (पश्चात्) फिर (त्रिपादम्) तीन लोक में [सूर्य, भूमि अर्थात् प्रकाशमान और अप्रकाशमान और मध्य लोक में] (अभि) सब ओर से (एति) प्राप्त होता है। (चतुष्याद्) चारों [पूर्व आदि चारों दिशाओं] में व्यापक परमेश्वर ने (द्विपदाम्) दो प्रकार की स्थितिवाले [जङ्गम और स्थावरों] के (अभिस्वरे) सब ओर से पुकारने पर (उपतिष्ठमानः) समीप ठहरते हुए और (पङ्क्तिम्) पाँति [सृष्टि की श्रेणी] को (संपश्यन्) निहारते हुए (चक्रे) [कर्तव्य को] किया है। (तस्य) उस (क्रुद्धस्य) क्रुद्ध (देवस्य) प्रकाशमान [ईश्वर] के लिये (एतत्) यह (आगः) अपराध है, [कि] (यः) जो मनुष्य (एवम्) ऐसे (विद्वांसम्) विद्वान् (ब्राह्मणम्) ब्राह्मण [वेदज्ञाता] को (जिनाति) सताता है। (रोहित) हे सर्वोत्पादक परमेश्वर [उस शत्रु को] (उद् वेपय) कंपा दे, (प्र क्षिणीहि) नाश कर दे, (ब्रह्मज्यस्य) ब्रह्मचारी के सतानेवाले के (पाशान्) फन्दों को (प्रति मुञ्च) बाँध दे ॥२५॥

    भावार्थ

    जो सर्वव्यापक परमात्मा सदा वर्तमान रहकर सब संसार का पालन करता है, सब मनुष्य उसकी उपासनापूर्वक विघ्नों से बचकर आनन्द पावें ॥२५॥इस मन्त्र के प्रथम दो पाद आचुके हैं-अ० १३।२।२७ और आवृत्ति छोड़ कर शेष मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।११७।८ ॥

    टिप्पणी

    २५−(एकपात्)... (पश्चात्) इति व्याख्यातः-अ० १३।२।२७। (चतुष्पात्) चतसृषु दिक्षु व्यापकः परमेश्वरः (चक्रे) कर्तव्यं कृतवान् (द्विपदाम्) जङ्गमस्थावररूपेण स्थितिवताम् (अभिस्वरे) सर्वतः शब्दकरणे (सम्पश्यन्) अवलोकयन् (पङ्क्तिम्) विस्तारम् (उपतिष्ठमानः) समीपे वर्तमानः। अन्यत् पूर्ववत्-म० १ ॥

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    विषय

    चतुष्पात् मन

    पदार्थ

    १. (एकपात्) = वे एकरस प्रभु (द्विपदः) = दो पाँववाले मनुष्य से (भूयः विचक्रमे) = अधिक गति व पराक्रमवाले हैं। (द्विपात्) = ये द्विपात् मनुष्य (त्रिपादम्) = लोक त्रयीरूप तीन पादोंवाले सूर्य के पश्चात् (अभि एति) = पीछे गतिवाला होता है, अर्थात् सूर्य उदय के साथ इसके कार्य प्रारम्भ होते हैं और सूर्यास्त के साथ इसके कार्य समाप्त होते हैं। [पूषन्तव व्रते वयं न रिष्येम कदाचन]। सूर्य के अनुसार कर्म करते हुए मनुष्य हिंसित नहीं होते। २. (द्विपाद अभिस्वरे) = मनुष्यों के शासन में [स्व शब्दे] (चतुष्पात) = 'मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार' के रूप में चतुर्विध गतिवाला यह अन्त:करण (पङ्क्ति उपतिष्ठमान:) = ज्ञानेन्द्रिय पञ्चक व कर्मेन्द्रिय पञ्चक में उपस्थित होता हुआ इन इन्द्रियों का अनुविधान करता हुआ [यन्मनोऽविधियते] (संपश्यन् चक्रे) = सम्यक् देखता हुआ कर्मों को करता है। मनुष्य-शरीर में यह 'अन्त:करण' एक अद्भुत रचना है। यह आत्मा और इन्द्रियों का मेल करनेवाला है। इसके द्वारा ही इन्द्रियों के सब कार्य होते हैं। इस अद्भुत रचना को देखनेवाला ज्ञानी ब्रह्म की महिमा का अनुभव करता है। इस ब्रह्मज्ञ की हत्या ब्रह्म के प्रति महान् पाप है। शेष पूर्ववत्।

    भावार्थ

    सारे मनुष्यों से भी एक प्रभु का पराक्रम अधिक है। मनुष्य सूर्य के व्रत में चलकर अहिंसित रहता है। मानव-शरीर में मन की अद्भुत रचना को देखनेवाला ज्ञानी ब्रह्म की महिमा का अनुभव करता है। इस ज्ञानी का आदर करना योग्य है।

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    भाषार्थ

    (एकपाद्१) एकपाद् पुरुषार्थ वाला मनुष्य (भूयः) फिर (द्विपदः) दोपाद् पुरुषार्थ वाले व्यक्तियों की ओर (विचक्रमे) विशेष पग बढ़ाता है, (द्विपात्) द्विपाद् पुरुषार्थ वाला बन कर (पश्चात्) तदनन्तर (त्रिपादम् अभि) त्रिपाद् पुरुषार्थ वाले व्यक्ति की ओर (एति) आता है। तत्पश्चात् वह (चतुष्पाद् चक्रे) चतुष्पाद् पुरुषार्थ वाला होकर तदनुसार आचरण करता है ऐसे (द्विपदाम्) दो पग वाले मनुष्यों की (अभि स्वरे) पुकार कर परमेश्वर (सं पश्यन्) उन की अभिलाषा को देखता हुआ, (पंक्तिम्) उन उपासकों की पंक्ति में (उपतिष्ठमानः) उपस्थित हो जाता है। (तस्य क्रुद्धस्य देवस्य) उस क्रुद्ध देव के लिये (एतत्) यह (आगः) अपराध या अपराधी है (यः) जो कि (एवम्) इस प्रकार के (विद्वांसं ब्राह्मणम्) विद्वान् ब्रह्मवेत्ता और वेदवेत्ता को (जिनाति) हानि पहुंचाता है। (रोहित) हे सिंहासनारूढ़ राजन् ! (उद् वेपय) ऐसे व्यक्ति को कम्पा, (प्रक्षिणीहि) ऐसे व्यक्ति का क्षय कर. (ब्रह्मज्यस्य) ब्रह्मवेत्ता ओर वेदवेत्ता को हानि पहुंचाने वाले पर (पाशान् प्रतिमुञ्च) फन्दे डाल।

    टिप्पणी

    [पुरुषार्थ के चार पाद है, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। प्रत्येक मनुष्य को चाहिये कि वह धर्म की आधारशिला पर, अर्थोपार्जन करके गृहस्थ धारण कर, कालान्तर में अगले आश्रमों का ग्रहण कर, मोक्ष का अधिकारी बने। ऐसी अवस्था में पहुंचे व्यक्तियों की पुकार और अभिलाषाओं को परमेश्वर सुनता है। ऐसे व्यक्ति को हानि पहुंचाने वाले को राजा दण्ड दे, यह वैदिक आज्ञा मन्त्र द्वारा ज्ञात होती है।] [१. एकपाद् = एक पादः (धर्मरुपः) यस्य सः। द्विपाद= द्वौ पादौ (धर्माथौं) यस्य सः। त्रिपाद्=त्रयः पादाः (धर्मार्थकामाः) यस्य सः। चतुष्पाद = चत्वारः पादाः (धर्मार्थकाममोक्षरूपाः) यस्य सः, अर्थात चतुष्पाद् धर्मरूपः मनुष्यः।]

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    विषय

    रोहित, आत्मा ज्ञानवान् राजा और परमात्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    प्रथम दो चरणों की व्याख्या देखो अथर्व० १३। २। २७ (प्र० द्वि०)॥ और (चतुष्पाद्) चार पैर वाला (द्विपदम्) दो पैर वालों के (अभिस्वरे) शासन में (पंक्तिम्) पांच की पंक्ति को (सम्पश्यन्) और (उपतिष्ठमानः) उसकी सेवा में उपस्थित होकर (चक्रे) देखता हुआ कार्य करता है। अध्यात्म में—चतुष्पात् अन्तःकरणचतुष्टय ‘द्विपद’ मनुष्यों के कर्म-ज्ञानमय आत्म के शासन में रहकर पांचों ज्ञानन्द्रियों को वश करता है। अथवा चतुष्पात् ब्रह्म स्वयं मनुष्यों के अभिस्वरे = प्रकाशमय हृदय में (पंक्तिम्) कर्मों के परिणतफल को देखता हुआ स्वयं उसको प्राप्त होता है, (तस्य०) इत्यादि पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मम्। रोहित आदित्य देवता। १ चतुरवसानाष्टपदा आकृतिः, २-४ त्र्यवसाना षट्पदा [ २, ३ अष्टिः, २ भुरिक् ४ अति शाक्वरगर्भा धृतिः ], ५-७ चतुरवसाना सप्तपदा [ ५, ६ शाक्वरातिशाक्वरगर्भा प्रकृतिः ७ अनुष्टुप् गर्भाति धृतिः ], ८ त्र्यवसाना षट्पदा अत्यष्ठिः, ६-१९ चतुरवसाना [ ९-१२, १५, १७ सप्तपदा भुरिग् अतिधृतिः १५ निचृत्, १७ कृति:, १३, १४, १६, १९ अष्टपदा, १३, १४ विकृतिः, १६, १८, १९ आकृतिः, १९ भुरिक् ], २०, २२ त्र्यवसाना अष्टपदा अत्यष्टिः, २१, २३-२५ चतुरवसाना अष्टपदा [ २४ सप्तपदाकृतिः, २१ आकृतिः, २३, २५ विकृतिः ]। षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    To the Sun, against Evil Doer

    Meaning

    The One sole self-existent Brahma exceeds the twofold created world of Purusha and Prakrti more and ever more. In the process of creative evolution, the twofold world of Purusha and Prakrti develops to the threefold world of Purusha, Prakrti and Jiva more and ever more. On the invocation of the human community in unity, close upon the unity, Brahma ordained them to be organised into four classes. To such a lord of light and comprehensive sight, that person is an offensive sinner who violates the Brahmana, the person who knows Brahma in truth. O Rohita, Ruler on high, shake up that Brahmana violator, punish him down to naught, let the snares of law, justice and retribution be spread wide for the Brahmana-violator. (Further on this mantra, refer to Brhadaranyaka Upanishad, 1, 4, 11-15 for the social interpretation.) This mantra can also be interpreted in terms of Patanjal Yoga Sutras: Brahma is Chatushpat (Mandukya Upanishad, 2 and 8-12). In Patanjala Yogasutras, the first five stages of practice are called Bahiranga (External) Yoga, and the last three upto Samadhi are called Antaranga (Internal) Yoga. On completion of the first five, Pankti, on invocation of the Yogi, the Chatushpat Brahma, immanent and transcendent, reveals Itself. Refer Yoga Sutras: 1, 3; 3, 8; 4, 34).

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    Translation

    The one-footed strode out more than the two-footed; the twofooted fails upon the throe-footed from behind; the fourfooted acted Within the call of the two-footed ones, beholding the series (panti), drawirig near (up-asthi) - to that wrathful (enraged) Lord it is offending that some one scathes such a learned intellectual person. O ascending one, make him tremble; destroy him; put your snares upon the harasser of intellectual persons. (See also Rg. X.117.8)

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    Translation

    He who thus destroys the learned Brahmana, the master of vedic speech or the man of high understanding outrages(by his sinful offense) that dreadful God in whose working order single-footed, the air moves faster than that of biped,the ,man and bird the biped follows triple-footed,the sun;the biped strive more(to catch the speed) than Sapada,the year having six seasons and all these take support of single-footed the air.

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    Translation

    The sole God has surpassed the animate and inanimate worlds. God Who exists in the Past and Future is then realized everywhere in the world, consisting of luminous, dark and mid-regions. God, Who pervades the four directions, being nearest in the hearts of men, performs His duty in beholding the fruit of their actions, This God is wroth offended by the sinner who vexes the Brahman who hath gained this knowledge. Terrify him, O King, destroy him, entangle in thy snares the Brahman’s tyrant!

    Footnote

    See Atharva, 13-2-27, Rigveda, 10-117-8.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २५−(एकपात्)... (पश्चात्) इति व्याख्यातः-अ० १३।२।२७। (चतुष्पात्) चतसृषु दिक्षु व्यापकः परमेश्वरः (चक्रे) कर्तव्यं कृतवान् (द्विपदाम्) जङ्गमस्थावररूपेण स्थितिवताम् (अभिस्वरे) सर्वतः शब्दकरणे (सम्पश्यन्) अवलोकयन् (पङ्क्तिम्) विस्तारम् (उपतिष्ठमानः) समीपे वर्तमानः। अन्यत् पूर्ववत्-म० १ ॥

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