Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 13 के सूक्त 3 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा भुरिगष्टिः सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
    81

    यस्मा॒द्वाता॑ ऋतु॒था पव॑न्ते॒ यस्मा॑त्समु॒द्रा अधि॑ वि॒क्षर॑न्ति। तस्य॑ दे॒वस्य॑ क्रु॒द्धस्यै॒तदागो॒ य ए॒वं वि॒द्वांसं॑ ब्राह्म॒णं जि॒नाति॑। उद्वे॑पय रोहित॒ प्र क्षि॑णीहि ब्रह्म॒ज्यस्य॒ प्रति॑ मुञ्च॒ पाशा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मा॑त् । वाता॑: । ऋ॒तु॒ऽथा । पव॑न्ते । यस्मा॑त् । स॒मु॒द्रा: । अधि॑ । वि॒ऽक्षर॑न्ति । तस्य॑ । दे॒वस्य॑ ॥ क्रु॒ध्दस्य॑ । ए॒तत् । आग॑: । य: । ए॒वम् । वि॒द्वांस॑म् । ब्रा॒ह्म॒णम् । जि॒नाति॑ । उत् । वे॒प॒य॒ । रो॒हि॒त॒ । प्र । क्ष‍ि॒णी॒हि॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । प्रति॑ । मु॒ञ्च॒ । पाशा॑न् ॥३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्माद्वाता ऋतुथा पवन्ते यस्मात्समुद्रा अधि विक्षरन्ति। तस्य देवस्य क्रुद्धस्यैतदागो य एवं विद्वांसं ब्राह्मणं जिनाति। उद्वेपय रोहित प्र क्षिणीहि ब्रह्मज्यस्य प्रति मुञ्च पाशान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मात् । वाता: । ऋतुऽथा । पवन्ते । यस्मात् । समुद्रा: । अधि । विऽक्षरन्ति । तस्य । देवस्य ॥ क्रुध्दस्य । एतत् । आग: । य: । एवम् । विद्वांसम् । ब्राह्मणम् । जिनाति । उत् । वेपय । रोहित । प्र । क्ष‍िणीहि । ब्रह्मऽज्यस्य । प्रति । मुञ्च । पाशान् ॥३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा और जीवात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (यस्मात्) जिस [परमेश्वर] से (वाताः) पवन (ऋतुथा) ऋतुओं के अनुसार (पवन्ते) शुद्ध करते हैं, (यस्मात्) जिससे (समुद्राः) समुद्र (अधि) मर्यादा से (विक्षरन्ति) बहते रहते हैं। (तस्य) उस (क्रुद्धस्य) क्रुद्ध (देवस्य) प्रकाशमान [परमेश्वर] के लिये.... [म० १] ॥२॥

    भावार्थ

    मन्त्र १ के समान ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यस्मात्) परमेश्वरात् (वाताः) पवनाः (ऋतुथा) ऋतूननुसृत्य (पवन्ते) शोधयन्ति (यस्मात्) (समुद्राः) जलौघाः (अधि) अधिकृत्य। मर्यादामनुसृत्य (विक्षरन्ति) विविधं वहन्ति ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वाता: समुद्राः

    पदार्थ

    १. (यस्मात्) = जिस प्रभु की व्यवस्था से (वाता:) = वायुएँ (ऋतुथा पवन्ते) = ऋतुओं के अनुसार यथोचितरूप में बहती हैं और (यस्मात्) = जिस प्रभु की व्यवस्था से (समुद्रा:) = समुद्र (अधिविक्षरन्ति) = विविध दिशाओं में क्षरित होते हैं। क्षारयुक्त जलवाले होते हैं, उस प्रभु के प्रति यह अपराध है जो इस ब्रह्मज्ञानी को हिंसित करता है। शेष पर्ववत्।

    भावार्थ

    प्रभु की व्यवस्था से ही उस-उस ऋतु में यथोचित वायुओं के प्रवाह चलते हैं, उसकी व्यवस्था से ही सब दिशाओं में समुद्रों के प्रवाह क्षरित हो रहे हैं। इस ब्रह्म को जाननेवाले का निरादर न करके उसके द्वारा राष्ट्र में ज्ञानवृद्धि करना ही उचित है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (यस्मात्) जिस परमेश्वर से (वाताः) वायुएँ (ऋतुथा) ऋत्वनुसार (पवन्ते) बहती या पवित्र करती हैं। (यस्मात् अधि) जिस से (समुद्राः) समुद्र (विक्षरन्ति) विविध प्रकार से क्षरित होते हैं। (तस्य देवस्य........पाशान्) पूर्ववत् (मन्त्र १)

    टिप्पणी

    [समुद्राः= पार्थिव चारों-समुद्र पृथिवी से अन्तरिक्ष की ओर, तथा अन्तरिक्षस्थ मेघ समुद्र अन्तरिक्ष से पृथिवी की ओर क्षरित होते हैं]।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    रोहित, आत्मा ज्ञानवान् राजा और परमात्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    (यस्मात्) जिस परमेश्वर के दल से (वाताः) वायुएं (ऋतुथा) ऋतुओं के अनुकूल (पवन्ते) वहा करती हैं और (यस्मात्) जिस मूल से, या जिसके आश्रय पर (समुद्राः) समुद्र, नदियों के प्रवाह (अधि विक्षरन्ति) विविध दिशाओं में प्रवाहित होते हैं। (तस्य देवस्य०) इत्यादि पूर्ववत्।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अध्यात्मम्। रोहित आदित्य देवता। १ चतुरवसानाष्टपदा आकृतिः, २-४ त्र्यवसाना षट्पदा [ २, ३ अष्टिः, २ भुरिक् ४ अति शाक्वरगर्भा धृतिः ], ५-७ चतुरवसाना सप्तपदा [ ५, ६ शाक्वरातिशाक्वरगर्भा प्रकृतिः ७ अनुष्टुप् गर्भाति धृतिः ], ८ त्र्यवसाना षट्पदा अत्यष्ठिः, ६-१९ चतुरवसाना [ ९-१२, १५, १७ सप्तपदा भुरिग् अतिधृतिः १५ निचृत्, १७ कृति:, १३, १४, १६, १९ अष्टपदा, १३, १४ विकृतिः, १६, १८, १९ आकृतिः, १९ भुरिक् ], २०, २२ त्र्यवसाना अष्टपदा अत्यष्टिः, २१, २३-२५ चतुरवसाना अष्टपदा [ २४ सप्तपदाकृतिः, २१ आकृतिः, २३, २५ विकृतिः ]। षड्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    To the Sun, against Evil Doer

    Meaning

    From whom the winds blow according to the seasons, from whom the oceans flow, to that Lord, that person is an offensive sinner who violates a Brahmana knowing the Lord thus celebrated.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Out of whom the winds blow in due seasons, out of whom the oceans flow out all around - to that wrathful (enraged) Lord it is offending that some one scathes such a Iearned intellectual person. O ascending one (Rohita), make: him tremble; destroy him put your snares upon the harasser of intellectual persons.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    He who thus destroys the learned Brahman the master of vedic speech of the man of high understanding outrages (by this sinful offence, that dreadful God from whom the winds blow according to seasons and from whom the seas flow in all directions.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    He from Whom winds blow pure in ordered season, from Whom the seas flow forth in all directions, this God is wroth offended by the sinner who vexes the Brahman who hath gained this knowledge. Terrify him, O King, destroy him ; entangle in thy snares the Brahman’s tyrant!

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यस्मात्) परमेश्वरात् (वाताः) पवनाः (ऋतुथा) ऋतूननुसृत्य (पवन्ते) शोधयन्ति (यस्मात्) (समुद्राः) जलौघाः (अधि) अधिकृत्य। मर्यादामनुसृत्य (विक्षरन्ति) विविधं वहन्ति ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top