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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 129

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 129/ मन्त्र 12
    सूक्त - देवता - प्रजापतिः छन्दः - प्राजापत्या गायत्री सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    स इच्छकं॒ सघा॑घते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । इच्छक॒म् । सघा॑घते ॥१२९.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स इच्छकं सघाघते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । इच्छकम् । सघाघते ॥१२९.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 129; मन्त्र » 12

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार जब तुम शिखर पर पहुँचने का प्रयत्न करते हो तो वे (महा) = महान् (अर्वाह:) = [ऋगतौ] सब गतियों को प्राप्त करानेवाले प्रभु (ते अयत्) = तुझे प्रास होते हैं। उन्नतिशील पुरुष ही प्रभु-प्राप्ति के योग्य होता है। २. (स:) = वे प्रभु (इच्छकम्) = प्रभु-प्राप्ति की प्रबल कामनावाले पुरुष को ही (सघाघते) = [receive, accept] स्वीकार करते हैं। यही ब्रह्मलोक में पहुँचने का अधिकारी होता है। ३. यह प्रभु का प्रिय साधक (गोमीद्या:) = [मिद् स्नेहने] ज्ञान की वाणियों के प्रति स्नेह को (सघाघते) = [सब् to support. bear] अपने में धारण करता है तथा गोगती: ज्ञान की वाणियों के अनुसार क्रियाओं को अपने में धारण करता है। यह बात शास्त्रनिर्दिष्ट है इति-इस कारण ही वह उसका धारण करता है।

    भावार्थ - शिखर पर पहुँचने के लिए यत्नशील पुरुष को प्रभु की प्राप्ति होती है। प्रभु उसी को प्राप्त होते हैं जो प्रभु-प्राप्ति की प्रबल कामनाबाला होता है। यह पुरुष ज्ञान की वाणियों के प्रति स्नेह को धारण करता है और ज्ञान की बाणियों के अनुसार ही क्रियाओं को करता है।

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