अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 129/ मन्त्र 16
बद्ध॑ वो॒ अघा॒ इति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठबद्ध॑ । व॒: । अघा॒: । इति॑ ॥१२९.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
बद्ध वो अघा इति ॥
स्वर रहित पद पाठबद्ध । व: । अघा: । इति ॥१२९.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 129; मन्त्र » 16
विषय - क्रियाशीलता व व्रत-बन्धन
पदार्थ -
१. (पल्प) = [पल् गतौ, पा रक्षणे] हे गति के द्वारा रक्षण करनेवाले! (बद्ध) = व्रतों के बन्धन में अपने को बाँधनेवाले जीव! तू अपना (इति) = यही लक्ष्य बना कि (वयः) = [वे तन्तुसन्ताने] मैंने अपने कर्मतन्तु को विच्छिन्न नहीं होने देना-इस कर्मतन्तु का विस्तार ही करना है। मैंने इस यज्ञ-तन्तु को जीवन में कभी विलुप्त नहीं होने देना। २. हे (अघा:) = पापो! आज तक तुम्हारे में फँसा हुआ यह (वः) = तुम्हारा व्यक्ति (बद्ध इति) = अब व्रतों के बन्धन में बँधा है, ऐसा समझ लो और अब इसे अपने वशीभूत करने की आशा छोड़ दो।
भावार्थ - हम क्रियाशील बनें, व्रतों के बन्धन में अपने को बाँधे और यज्ञ-तन्तु को विच्छिन्न न होने देने का निश्चय करें। पाप भी ये समझ लें कि अब मैं व्रतों के बन्धन में बँधा हूँ, अब वे मुझे अपने वशीभूत न कर सकेंगे।
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