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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 129

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 129/ मन्त्र 9
    सूक्त - देवता - प्रजापतिः छन्दः - दैवी बृहती सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    पृदा॑कवः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृदा॑कव: ॥१२९.॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृदाकवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृदाकव: ॥१२९.॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 129; मन्त्र » 9

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार जीवन में तीन शपथें लेने पर [उत्तम मार्ग से धन कमाऊँगा, शान्त रहूँगा, प्रभु की ओर चलूँगा] (त्रयः) = आधिभौतिक, आध्यात्मिक व आधिदैविक तीनों ही कष्ट (परि) = [परेर्वजने] हमारे जीवनों से दूर हो जाते हैं। २. धन को कुमार्ग से न कमाने का व्रत लेने पर मनुष्यों का परस्पर प्रेम न्यून नहीं होता और युद्ध आदि का प्रसंग उपस्थित नहीं होगा, इसप्रकार आधिभौतिक कष्ट उपस्थित नहीं होते। जीवन के शान्त होने पर आध्यात्मिक कष्टों का प्रसंग नहीं होता। प्रभु-प्रवणता आधिदैविक कष्टों को दूर रखती है। ३. इस स्थिति में एक घर के मुख्य पात्र 'पिता, माता व सन्तान' "पृ-दा-कव:' होते हैं। [पृणाति protect क्रियते to be busy] पिता व्यापार आदि में लगे रहकर धनार्जन करता हुआ घर का रक्षक होता है। माता सबके लिए आवश्यक वस्तुओं को 'दा'-देनेवाली होती है तथा सन्तान [कुशके] ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करते हुए कवि व ज्ञानी बनने के लिए यत्नशील होते हैं। ४. इसप्रकार घर के सब व्यक्ति अपने जीवनों में (श्रृंगम्) = शिखर को (धमन्तम्) = [ध्मा-to manufacture by blowing] तपस्या द्वारा निर्मित करते हुए (आसते) = स्थित होते हैं-तपस्या के द्वारा-प्राणायाम के द्वारा उन्नत होते हुए शिखर पर पहुँचते हैं।

    भावार्थ - हमारे जीवनों के उत्तम होने पर सब कष्ट हमसे दूर रहते हैं। घरों में "पिता, माता व सन्तान' सब अपने कर्तव्यों को सुचारुरूपेण करते हैं और तपस्वी बनकर शिखर पर पहुँचने के लिए यत्नशील होते हैं।

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