अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 129/ मन्त्र 6
क्वाह॑तं॒ परा॑स्यः ॥
स्वर सहित पद पाठक्व । आह॑त॒म् । परा॑स्य: ॥१२९.६॥
स्वर रहित मन्त्र
क्वाहतं परास्यः ॥
स्वर रहित पद पाठक्व । आहतम् । परास्य: ॥१२९.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 129; मन्त्र » 6
विषय - तीन शपथें
पदार्थ -
साधक गतमन्त्र में वर्णित अपनी हरिक्निका नामक चित्तवृत्ति से ही पूछता है कि तू (तम्) = उस प्रभु को (क्व आह) = कहाँ कहती है? वे प्रभु कहाँ हैं? २. साधक ही (पुन:) = कहता है कि क्या तू यह कहती है कि (स्य:) = वे प्रभु (परा) = परे व दूर है। वहाँ (यत्र) = जहाँ कि (अमू:) = वे (तिस्त्र:) = तीन (शिशपा:) = [शि-good fortune; tranquiling: Shiva; शिव । शप्-take an oath] शपथें ली जाती हैं कि हम [क] सुपथ से धन कमाएँगे, [ख] जीवन को शान्त रखेंगे, और [ग] प्रभु-प्राप्ति को अपना लक्ष्य बनाएँगे।
भावार्थ - प्रभु का निवास उस व्यक्ति में होता है जो [क] सुपथ से धन कमाता है [ख] शान्तवृत्ति का बनता है और [ग] प्रभु-प्राप्ति को अपने जीवन का लक्ष्य बनाता है।
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